संगठनात्मक व्यवहार के सिद्धान्त:- संगठनात्मक व्यवहार विषय कुछ मूलभूत विचारों व अवधारणाओं पर संगठनात्मक व्यवहार आधारित है जो कि व्यक्ति तथा संगठनों की प्रकृति से सम्बन्धित है। ये विचार संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से लागू होते हैं,

यद्यपि प्रबन्ध के अन्य क्षेत्रों में भी इनका उपयोग होता है।

  • (1) वैयक्तिक अन्तर :- व्यक्ति कई दृष्टि से समान है जैसे उनके द्वारा सुख – दुःख का आभास करना। व्यक्ति निजी तौर पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कुशाग्रता, व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, विचार-चिन्तन, साहस, धैर्य, बौद्धिक स्तर आदि कई गुणों को लेकर व्यक्ति भिन्नता रखते हैं। उनकी अभिप्रेरणा एवं सन्तुष्टि का स्तर भी भिन्न होता है। उनके कार्य करने एवं परिणाम प्राप्त करने का ढंग भी अलग – अलग हो सकता है |
  • (2) अवबोध :- व्यक्ति चीजों एवं घटनाओं को अलग-अलग ढंग से देखते हैं।व्यक्तियों का नजरियां, दृष्टिकोण एवं सोचने-समझने का तरीका भिन्न-भिन्न होता है। व्यक्ति की दृष्टि एवं सोच उसके व्यक्तित्व, आवश्यकताओं, विगत अनुभव, सामाजिक वातावरण, समयावधि आदि पर निर्भर करता है। प्रत्येक व्यक्ति के विश्वासों, मूल्यों एवं अपेक्षाओं का अपना संसार होता है, जिसके माध्यम से वे निर्णय लेते हैं। न्यूस्ट्राम एवं कीथ डेविस के अनुसार, “प्रबन्धकों को अपने कर्मचारियों के अवबोध सम्बन्धी अन्तरों को स्वीकार करने तथा व्यक्त्यिों को भावपूर्ण प्राणियों के रूप में देखने का प्रयास करना चाहिए तथा उनके साथ वैयक्तिक ढंग से व्यवहार करना चाहिए।”
  • (3) एक सम्पूर्ण व्यक्ति :- व्यक्ति कार्यस्थल पर सम्पूर्ण मानव के रूप में कार्यकरते है। व्यक्ति को कार्य पर सम्पूर्ण रूप से नियोजित किया जाता है। केवल उसके कार्यकौशल का ही उपयोग नहीं किया जाता है। व्यक्ति अपनी कार्य योग्यताओं के साथ-साथ अपनी भावनाओं, आवश्यकताओं, अपने उत्साह, दृष्टिकोण तथा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को कार्य स्थल पर साथ लेकर आता है। उसके घर के जीवन को उसके कार्य जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। कर्मचारी अपने समस्त गुणों अवगुणों, उत्साह-निराशाओं, सन्तुष्टि- तनावों एवं घर व बाहर के दबावों को कार्यस्थल पर साथ लाता है, क्योंकि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। अतः प्रबन्धक को अपने कर्मचारियों को ‘सम्पूर्ण’ मानव के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
  • (4) निमित्त व्यवहार :- प्रत्येक व्यवहार का कोई कारण होता है। दूसरे शब्दों में,प्रत्येक व्यवहार के पीछे कोई उद्देश्य, हेतु अथवा प्रयोजन होता है। जब कोई श्रमिक अपने सुपरवाइजर से विवाद करता है, या कार्य पर देरी से आता है अथवा कार्य में निरन्तर त्रुटियों करता है तो यह अकारण नहीं होता है। मनोवैज्ञानिक मानते है कि कोई भी व्यवहार आकस्मिक नहीं होता है। अतः प्रबन्धक को कर्मचारियों के व्यवहार के पीछे निहित कारण को जानते हुए ही उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।
  • (5) भागीदारी की इच्छा : – प्रत्येक व्यक्ति में सम्मान की इच्छा होती है। वहअपनी क्षमता सिद्ध करके महत्वपूर्ण अनुभव करना चाहता है। संगठन में प्रत्येक कर्मचारी यह विश्वास रखता है कि उसमें कार्य करने की क्षमता है वह अपनी भूमिकाआ का निर्वाह कर सकता है तथा चुनौतीपूर्ण स्थिति का सफलतापूर्वक सामना कर सकता है। आज अनेक कर्मचारी नीति व निर्णयों के निर्धारण में भाग लेना चाहते हैं। अतः प्रबन्धक को संगठन में व्यवहार करते समय कर्मचारियों की कार्य क्षमता, गुण एवं भागीदारी की आकांक्षा को ध्यान में रखना चाहिए।
  • (6) व्यक्ति के प्रति नीतिगत व्यवहार :- संगठनात्मक व्यवहार व्यक्ति की गरिमा एवं उसकी नैतिक छवि में विश्वास करता है। व्यक्ति को मात्र उत्पादन का साधन नहीं माना जाना चाहिए। मनुष्य आर्थिक उपकरण नहीं है, वरन् आत्मिक इकाई है। अतः उनके साथ वस्तुगत व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। नैतिक निष्पादन का उच्च स्तर बनाये रखा जाना चाहिए। उन्हें विकास के अवसर दिये जाने चाहिए।
  • (7) संगठन सामाजिक प्रणालियाँ है:- संगठनात्मक व्यवहार यह मानता है कि संगठन सामाजिक प्रणाली है क्योंकि यह मानवीय सम्बन्धों से निर्मित होता है तथा सामाजिक नियमों से नियन्त्रित होता है। संगठन में व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के साथ-साथ सामाजिक भूमिकाए तथा स्तर भी होता है। उनका व्यवहार उनकी वैयक्तिक एवं समूह आवश्यकताओं दोनों से प्रभावित होता है। संगठनों में दो प्रकार की प्रणालियाँ औपचारिक एवं अनौपचारिक विद्यमान होती है। सामाजिक प्रणाली से तात्पर्य यह भी है कि संगठनात्मक वातावरण गतिशील परिवर्तनों से मिलकर बनता है।
  • (8) हितों की पारस्परिकता :- हितों की पारस्परिकता इस बात में निहित है कि ‘संगठनों को व्यक्तियों की जरूरत होती है तथा व्यक्तियों को संगठनों की आवश्यकता होती है।’ संगठनों का एक मानवीय उद्देश्य होता है तथा वे अपने सदस्यों के हितों की पारस्परिकता के आधार पर बनाये तथा चलाये जाते हैं। जिन संगठनों में हितों की पारस्परिकता नहीं होती है वे केवल भीड़ मात्र होते हैं। पारस्परिक हित “अधिगौण लक्ष्य” की ओर कर्मचारियों को प्रेरित करते हैं। अधिगौण लक्ष्य वह होता है जिसे व्यक्तियों तथा नियोक्ता के एकीकृत प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

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