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Home»Collage Study»अवबोध के सिद्धान्त
Collage Study

अवबोध के सिद्धान्त

adminBy adminJune 13, 2025Updated:June 13, 2025No Comments14 Mins Read
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अवबोध के सिद्धान्त
#Collagestudy.com #collagestudy.in
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अवबोध की क्रिया ‘व्यक्ति’ और ‘वास्तविकता’ के बीच निरन्तर चलती रहती है। अवबोध की क्रियाविधि के तीन प्रमुख घटक हैं चयन (Selection), संगठन (organisation) तथा विवेचन (Interpretation)। इन्हीं से व्यक्ति का व्यवहार प्रकट होता है। इनका विस्तृत वर्णन तथा इन्हें प्रभावित करने वाले घटक निम्न प्रकार हैं-

  1. चयन (Selection) – वातावरण में कार्यशील अनेक उद्दीपक एवं उत्तेजनाएँ निरन्तर प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित कर रही होती हैं। किन्तु वह इनमें से कुछ ही उद्दीपकों पर ध्यान देने के लिए उनका चयन करता है। व्यक्ति समस्त सूचनाओं को ग्रहण न करके केवल चयनित सूचनाओं को ही प्राप्त करता है। एक व्यक्ति एक निश्चित समय पर केवल कुछ उद्दीपकों का ही क्यों और कैसे चयन करता है, इस सम्बन्ध में उसके बोधात्मक चयन से जुड़े कुछ सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं जो व्यक्ति के बोधात्मक चयन को प्रभावित करते हैं। ये बहुत से बाह्य एक आन्तरिक घटक हैं जो निम्नानुसार हैं-
    • अ बाहय ध्यानाकर्षण घटक – ये घटक बाह्य वातावरण से जुड़े होते हैं जो व्यक्ति की चयनात्मकता को प्रभावित करते हैं-
      • तीव्रता – बाह्य उद्दीपक जितना अधिक तीव्र या प्रबल होगा, उसका अवबोध उतना ही प्रगाढ़ होगा। विज्ञापनकर्ता उपभोक्ता का ध्यान आकर्षित करने में इस सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं। चमकीले पैकेजिंग, उच्च स्वर में टीवी, विज्ञापन, सुपरवाइजर का जौर से बोलना, तीज गंध या प्रकाश आदि तीव्रता के प्रयोग के उदाहरण है।
      • आकार – इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का आकार जितना बड़ा होगा, इसका अवबोध होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। अनुरक्षण इंजीनियरिंग कर्मचारी बड़े आकार की मशीनों व यंत्री पर अधिक ध्यान देते हैं। कुछ लाइनों की अपेक्षा पूरे पृष्ठ का विज्ञापन अधिक प्रभावी होता है।
      • विषमता – यह सिद्धान्त बताता है कि किसी चीज का प्रभाव या आकर्षण उसकी पृष्ठभूमि या वैषम्य स्थिति से उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए, जब संयंत्र सुरक्षा के चिन्ह पीले रंग की पृष्ठभूमि में काले अक्षरों से अथवा लाल पृष्ठभूमि पर सफेद रंग के अक्षरों से अंकित किये जाते हैं तो वे विषय पृष्ठभूमि के कारण अधिक प्रभावी होते हैं। इस सिद्धान्त को निम्न चित्र के ‌द्वारा समझा जा सकता है- चित्रों में दोनों काले वृत समान आकार के हैं, यद्यपि अपनी विषम पृष्ठभूमि के कारण दाहिने चित्र का काला वृत बायीं ओर के काले वृत्त से अधिक बड़ा दिखाई देता है।
  • पुनरावृत्ति – इस सिद्धान्त के अनुसार बार-बार दोहराई गई बात या उद्दीपक पर ज्यादा ध्यान आकर्षित होता है। इस कारण यह है कि पुनरावृत्ति से उद्दीपक के प्रति हमारी संचेतना बढ़ जाती है तथा जब भी हमारे ध्यान में कमी आने लगती है, पुनरुक्ति से ध्यान वापस लौट आता है। यही कारण है कि विज्ञापनदाता अपने उत्पाद संदेश को बार-बार दोहराते हैं, सुपरवाइजर अपने श्रमिकों को बार-बार कार्य निर्देश प्रदान करते हैं।
  • गति – यह सिद्धान्त बतलाता है कि दृष्टि जगत में रुकी हुई चीजों की अपेक्षा गतिशील चीजें अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं। एक स्थायी मशीन की तुलना में श्रमिक कनवेयर बेल्ट पर चलती सामग्री पर अधिक ध्यान देंगे। यही कारण है कि विज्ञापनदाता गतिशील अक्षरों वाले (जैसे रेलवे द्वारा गाड़ियों की सूचना का इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापन देना) विज्ञापन करने लगे है।
  • अनूठापन एवं सुपरिचितता – कोई भी नवीन, अनूठी या सुपरिचित बाह्य स्थिति भी व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करती है। परिचित वातावरण में नई चीजें अथवा नये वातावरण में सुपरिचित चीजें अवबोधक का शीघ्र ही ध्यान आकर्षित कर लेती है। नवीन कार्य दशायें, प्रशिक्षण योजना, कार्य आवर्तन आदि उनके अनूठेपन एवं नवीनता के कारण ध्यान आकर्षित करते हैं।
  • ब आन्तरिक ध्यानाकर्षण घटक – बोधात्मक चयन आन्तरिक घटकों से भी प्रभावित होता है। इसमें व्यक्ति की जटिल मनोवैज्ञानिक संरचना शामिल होती है। व्यक्ति वातावरण से उन उद्दीपकों या स्थिति का चयन करते हैं जो उनके व्यक्तित्व, जान एवं अभिप्रेरण के अनुकूल होती है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है:
    • सीखना एवं अवबोध – यद्यपि सीखने की अवधारणा अभिप्रेरण एवं व्यक्तित्व से जुड़ी है, किन्तु बोधात्मक समूह के विकास में इसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। उदाहरण के लिए, नीचे त्रिभुज में दिए गए वाक्यांश को पढ़िए।

यह जानने में कि इस वाक्यांश में कुछ गलत है काफी समय लग सकता है। इसका कारण यह है कि वाक्यांश से पूर्व परिचय एवं शिक्षण होने की वजह से व्यक्ति उसे इसी रूप में “Turn Off The Engine” पढ्‌ने व बोध करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सीखने की प्रवृत्ति एक प्रत्याशा उत्पन्न करके एक निश्चित ढंग से अवबोध करने के लिए प्रेरित करती है। यह ‘प्रत्याशा व्यवहार की अवबोधात्मक व्याख्या करने में एक महत्वपूर्ण तत्व की भूमिका निभाती है। दूसरे शब्दों में, यह दृष्टिकोण बतलाता है कि ‘ ‘व्यक्ति जो देखने व सुनने की आशा रखते हैं, वही देख व सुन लेते हैं। ” व्यक्ति का सीखा हुआ अनुभव उसके द्वारा सूचनाओं (उद्दीपकों) के चयन में सहायक होता है। व्यक्ति सीखने के अनुभव की पृष्ठभूमि में ही आगे की कार्यवाही का चयन करता है।

  1. 2. बोधात्मक संयोजन अथवा संगठन (Perceptual Organisation) – बोधात्मक चयन का सम्बन्ध व्यक्ति के ध्यान को आकर्षित करने वाले बाह्य एवं आन्तरिक घटकों से है। बोधात्मक संयोजन इस बात पर बल देता है कि वातावरण से सूचना प्राप्त करने के बाद बोधात्मक प्रक्रिया में क्या होता है। एक व्यक्ति रंग, प्रकाश अथवा ध्वनि के संयोजन अथवा जोडजाड़ का शायद ही अवबोध करता है। बल्कि इसके स्थान पर वह उद्दीपकों के संगठित प्रारूपों एवं पहचान योग्य सम्पूर्ण चीजों का अवबोध करेगा। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति बोधात्मक प्रक्रिया के द्वारा ही अपने मस्तिष्क में प्राप्त सूचनाओं को एक ‘अर्थपूर्ण समग्रता’ में संघटित करता है। बोधात्मक संयोजन के कुछ सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं-
    • आकृति आधार – ‘आकृत्ति आधार का सिद्धान्त बोधात्मक संगठन का अत्यधिक मूल स्वरूप है। इसका आशय यह है कि अवबोधित वस्तुओं को उनकी सामान्य पृष्ठभूमि से पृथक्करणीय के रूप में देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति पुस्तक से जब कुछ पंक्तियों पढ़ रहा होता है तो वह काले और सफेद का अनियमित आकार में कोई जोड़-तोड़ का स्वरूप देखता है। किन्तु इसके बावजूद वह सफेद पृष्ठभूमि पर काले आकार में अंकित कुछ अक्षरों, शब्दों व वाक्यों का अवबोध कर सकता है। अर्थात् पाठक प्राप्त सूचनाओं (उद्दीपको) को पहचान योग्य आकृतियों (शब्दों) में बोधात्मक रूप से संयोजित कर सकता है।
    • बोधात्मक समूहीकरण – बोधात्मक संयोजन का समूहीकरण सिद्धान्त यह बतलाता है कि व्यक्तियों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे कई उद्दीपकों का एक साथ पहचान योग्य प्रारूप में समूहीकरण कर लेते हैं। यह बहुत मौलिक सिद्धान्त है तथा व्यक्तियों में कृत् रूप से जन्मजात पाया जाता है। समूहीकरण में कुछ समानताओं को आधार बनाया जाता है। जब व्यक्तियों के समक्ष उद्दीपकों के सरल पुंज प्रस्तुत किये जाते हैं तो वे उन्हें समापन्निरन्तरता, निकटता या समानता के आधार पर समूहों में बदल लेते हैं।समूहीकरण के कुछ सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
      • पूर्ण करना – ‘पूर्ण करने’ का सिद्धान्त संरूपण मनोविज्ञान से जुड़ा है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति किसी सम्पूर्ण स्वरूप का अवबोध कर लेता है जबकि वास्तव में यह स्वरूप वहाँ विद्यमान नहीं होता। वास्तव में, व्यक्ति अपनी बोधात्मक प्रक्रिया के द्वारा उन खाली स्थानों को भरके एक सम्पूर्ण आकृति का अवबोध कर लेता है जो ऐन्द्रिक सूचनाओं द्वारा नहीं भरे जा सके हैं। औपचारिक संगठनों में कर्मचारी या तो एक सम्पूर्ण’ का अवबोध कर लेते हैं जबकि वास्तव में वह विद्यमान नहीं होता अथवा जो विभिन्न भाग वहां विद्यमान होते हैं, उन्हें वह साथ जोड़कर सम्पूर्ण’ का निर्माण नहीं कर पाते। वे विभिन्न भागों का आपसी सम्बन्ध जोड़कर सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं देख पाते हैं।
      • निरन्तरता – पूर्ति करने का सिद्धान्त अनुपस्थित उद्दीपकों को उपलब्ध कराता है जबकि निरन्तरता के सिद्धान्त के अनुसार व्याक्ति निरन्तर रेखाओं या प्रारूपों का अवबोध करने की प्रवृत्ति रखता है। इस प्रकार की निरन्तरता से संगठन कर्मचारियों में अलोचपूर्ण या सृजनात्मक चिन्तन उत्पन्न हो सकता है। व्यक्ति अपने अवबोध से स्पष्ट, निरन्तर प्रारूप या सम्बन्धों की रचना कर सकता है। निरन्तरता के सिद्धान्त से संगठनात्मक संरचना का प्रणाली परिरूप निर्धारित किया जा सकता है।
      • समीपता – यह सिद्धान्त बताता है कि उन उद्दीपकों, जो आपस में निकट हैं, का समूह आपस में सम्बन्धित भागों से एक ‘सम्पूर्ण स्वरूप’ का अवबोध करने में सहायक हो सकता है। उदाहरणार्थ एक संगठन में कार्यरत हजारों कर्मचारियों को भौतिक निकटता के कारण एक समूह के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार किसी विशिष्ट मशीन या संयंत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों का ‘एकल सम्पूर्णता के रूप में अवबोध किया जा सकता है।
      • समानता – इस सिद्धान्त के अनुसार उद्दीपकों में जितनी समानता होगी, उतनी ही उनका एक सामान्य समूह के रूप में अवबोध करने की प्रवृत्ति अधिक होगी। समानता यद्यपि अवधारणात्मक रूप से समीपता से सम्बन्धित है किन्तु अधिकांश मामलों में यह समीपता से अधिक सुदृढ़ है। श्रमिकों की एक सी युनिफार्म उन्हें एक सामान्य समूह की पहचान देती है जबकि प्रत्येक श्रमिक एक अद्भुत व्यक्ति होता है। समानता का विचार अल्पसंख्यकों तथा महिला कर्मचारियों को भी एकल समूह का स्वरूप देता है।
    • बोधात्मक स्थायित्व – स्थायित्व बोधात्मक संयोजन का एक परिष्कृत स्वरूप है। स्थायित्व के अवबोध से व्यक्ति उद्दीपकों की गतिशीलता एवं परिवर्तन योग्यता को इस ढंग से देखता है कि ये उद्दीपक वास्तविक जगत के स्थायित्व का बोध कराने लगते हैं- जिसमें वस्तुओं व व्यक्तियों के स्थायित्व एवं अपरिवर्तनशीलता का अवबोध किया जा सकता है क्योंकि अगर, उदाहरण के लिए, कार्य स्थल पर स्थायित्व नहीं होता तो व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण कार्यस्थल अव्यवस्थित एवं असंगठित हो जाता। स्थायित्व के कारण ही एक श्रमिक विविध एवं वृहद् सामग्रियों एवं यंत्रों के ढेर से कोई एक विशिष्ट उपकरण एवं साम्रगी का चुनाव कर पाता है। बिना बोधात्मक स्थायित्व के एक श्रमिक के लिए वस्तुओं के इतने विविध आकारों, प्रकारों एवं रंगों में से चयन कर पाना लगभग असंभव होता है। यह सिद्धान्त बताता है कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं के बावजूद एक वस्तु का आकार, स्वरूप, रंग, चमक, डिजाइन एवं स्थान आदि अच्छे ढंग से स्थाई हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि बोधात्मक स्थायित्व किसी संकेत की उपेक्षा करने के फलस्वरूप उत्पन्न नहीं होता, वरन् यह संकेतों के प्रारूप’ के प्रति प्रत्युत्तर देने के फलस्वरूप घटित होता है।
    • बोधात्मक सुरक्षा – सह सिद्धान्त संदर्भ के विचार से भी जुड़ा है। इसके अन्तर्गत एक व्यक्ति ऐसे उद्दीपको अथवा परिस्थितिगत घटनाओं के विरुद्ध एक सुरक्षात्मक घेरा तैयार कर लेता है अथवा उन्हें पहचानने से इन्कार कर देता है जो व्यक्तिगत रूप से अथवा सांस्कृतिक रूप से अस्वीकार्य या धमकाने वाली होती हैं। इस प्रकार श्रम-प्रबन्ध अथवा सुपरवाइजर-अधीनस्थ सम्बन्धों को समझने में बोधात्मक सुरक्षा के सिद्धान्त की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बुनर एवं पोस्टमैन तथा मैकगिन्निज़ द्वारा किए गए शोध-कार्यों से बोधात्मक सुरक्षा सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त हुई है। हेयर एवं सुन्स द्वारा किये गये अनुसंधान से यह स्पष्ट हुआ है कि ‘व्यक्ति वातावरण या संदर्भ के कुछ मतभेद वाले, धमकाने वाले अथवा अस्वीकार्य पहलुओं के अवबोध से बचने की प्रवृत्ति सीख सकते हैं।’ इस अध्ययन एवं दूसरे सुसंगत प्रयोगों से यह पूर्णतः स्पष्ट हो गया है कि भावनात्मक रूप से व्याकुल कर देने वाली सूचनाओं का अवबोध तुरन्त नहीं किया जाता है। इन अध्ययनों से यह भी प्रकट हुआ कि कुछ व्यक्ति विशेषकर सुपरवाइजर एवं अधीनस्थ कुछ घटनाओं एवं स्थितियों को बिल्कुल नहीं देखते हैं अथवा वे अविरोधी रूप से उनकी गलत व्याख्या करते हैं। बोधात्मक संदर्भ एवं सुरक्षा के सिद्धान्त ‘सामाजिक अवबोध से अधिक जुड़े हुए हैं।
  2. 3 . व्याख्या या अर्थ प्रतिपादन (Interpretation) – अवबोध क्रियाविधि का तीसरा और अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग ‘अर्थ प्रतिपादित करना है। अवबोधित घटनाओं एवं अवबोधित जगत की व्याख्या के बिना सब कुछ व्यर्थ है। व्याख्या करना एक व्यक्तिमूलक एवं निर्णयात्मक प्रक्रिया है। संगठनात्मक जीवन में अर्थ प्रतिपादित करने का कार्य कई घटकों से प्रभावित होता है। इनमें से कुछ प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
    • आरोपण – आरोपण के अन्तर्गत व्यक्ति स्वयं के एवं दूसरे के व्यवहार के कारण ही व्याख्या करता है। सामाजिक अवबोध में आरोपण से तात्पर्य दूसरे व्यक्तियों तथा स्वयं के व्यवहार की व्याख्या करने में कारणों (आरोपो) की खोज करना है। उदाहरण के लिए, अपने अधीनस्थ के व्यवहार के लिए एक प्रबन्धक जिस कारण का आरोपण करता है उसका प्रभाव प्रबन्धक द्वारा अपने अधीनस्थ का अवबोधन करने तथा अधीनस्थ के प्रति व्यवहार करने पर भी पड़ता है। उल्लेखनीय है कि अधीनस्थ कर्मचारी के उत्कृष्ट निष्पादन का कारण यदि नई मशीन या इंजीनियरिंग कार्य प्रणाली है तो ऐसी स्थिति में अधीनस्थ कर्मचारी के प्रति व्यवहार एवं उसका अवबोध उससे भिन्न होगा जबकि उच्च निष्पादन का कारण अधीनस्थ योग्यता एवं स्वप्रेरणा रहा हो। अवबोध एवं व्यवहार की स्थिति इस बात को लेकर बदलती रहेगी कि कारण एवं आरोपण आन्तरिक व व्यक्तिगत है अथवा बाह्य व परिस्थितिगत। संक्षेप में, ‘अवबोध इस बात पर गहराई से निर्भर करता है व्यवहार का कारणात्मक आरोप किस प्रकार का है। आरोपणात्मक प्रक्रिया एवं इसके प्रकार व स्वरूप के द्वारा संगठनात्मक व्यवहार गहन रूप से प्रभावित होता है।
    • रुढ़िबद्ध करना – किसी व्यक्ति को रुढिबद्ध करने अथवा उसे एक ही सांचे में ढालने की प्रवृत्ति सामाजिक अवबोध की एक मुख्य समस्या है। रुदिबद्ध करना एक ऐसी बोधात्मक अभिवृत्ति है जिसमें अन्य व्यक्ति को किसी एक विशिष्ट श्रेणी में वर्गीकृत कर दिया जाता है। रुढिबद्ध व्यक्ति की आरोपित गुणों के सम्बन्ध में सामान्य सहमति रहती है तथा आरोपित गुणों एवं वास्तविक गुणों में विसंगति बनी रहती है। 1922 में, वाल्टर लिपमेन ने ‘Stereotype’ शब्द का प्रयोग अवबोध के सम्बन्ध में किया था। तब से यह शब्द बोधात्मक त्रुटियो का वर्णन करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह शब्द विशिष्ट रूप से जातीय पक्षपात दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अधिकांश रुदिबद्ध व्यक्तियों में अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के गुण होते हैं। रुदिबद्ध करने की प्रवृत्ति आज के संगठनों में सामाजिक अवबोध को गहन रूप से प्रभावित करती हैं। सामान्य रूप से रुदिबद्ध समूहों में प्रबन्धकों, सुपरवाइजर्स, श्रमसंघ सदस्यों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, संयंत्र श्रमिकों आदि को शामिल किया जाता है। इसमें कई क्रियात्मक एवं कर्मचारी विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाता है। इन श्रेणियों के सदस्यों द्वारा धारित गुणों के बारे में सभी एक मत हैं। फिर भी वास्तव में, प्रत्येक श्रेणी के सहमत गुणों तथा सदस्यों के वास्तविक गुणों में विसंगति बनी रहती है। दूसरे शब्दों में, न तो सभी इंजीनियर्स विवेकशील होते हैं और न सभी सेविवर्गीय प्रबन्धक ही कल्याण करने वाले होते हैं जो श्रमिकों को खुश रखने की कोशिश करते हो। दूसरी तरफ, वहाँ वैयक्तिक अन्तरों के अतिरिक्त इन समूहों के सदस्यों में अत्यधिक अस्थिरता व परिवर्तनशीलता पायी जाती है इसके बावजूद, दूसरे संगठन सदस्य सामान्य रूप से आवरण अवबोध करते हैं तथा उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। एक शोध अध्ययन में यह पाया गया है कि ‘व्यक्ति इस आधार पर कि वे श्रमसंघ से अथवा प्रवन्ध समूह से पहचान रखते हैं, दूसरों का अवबोध करते हैं तथा दूसरे उनका अवबोध करते हैं।
    • प्रभामण्डल प्रभाव – सामाजिक अवबोध में प्रभामण्डल प्रभाव सम्बन्धी त्रुटि रुदिबद्ध करने जैसी ही है। अन्तर केवल इतना सा है कि रुदिबद्ध करने में व्यक्ति का अवबोध केवल ‘एक श्रेणी के अनुसार किया जाता है जबकि प्रभामण्डल प्रभाव में व्यक्ति का अवबोध केवल ‘एक गुण’ के आधार पर किया जाता है।प्रभामण्डल प्रभाव में, व्यक्ति का एक गुण ही मूल्यांकन एवं अवबोध का आधार बन जाता है। दूसरों का अवबोध करते समय वह गुण दूसरे लक्षणों को निरस्त कर देता है। उदाहरण के लिए, एक प्रबन्धक अपनी महिला सचिव जो कि अत्यधिक सुन्दर है, को कुशाग्र बुद्धि एवं कुशल भी मानता है जबकि वास्तव में वह निकृष्ट टाइपिस्ट एवं बिल्कुल ही मन्दबुद्धि है। जेरोम ब्रूनर तथा टेग्यूरी द्वारा किये गये एक अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि तीन दशाओं में प्रभामण्डल प्रभाव अधिक व्यक्त होता है-
      • व्यवहारवादी अभिव्यक्तियों में जिन गुणों को अवबोध किया जाना है, जब वे अस्पष्ट हो;
      • जब अवबोधक को गुणों का बहुधा साक्षात्कार न हो एवं
      • जब गुणों या लक्षणों के नैतिक निहितार्थ हो। बहुत से शोध अध्ययनों में यह बताया गया है कि किस प्रकार प्रभामण्डल प्रभाव अवबोध को प्रभावित करता है। संक्षेप में, बोधात्मक प्रक्रिया में प्रभामण्डल प्रभाव से एक गुण या लक्षण अवबोधक को दूसरे गुणों के प्रति अन्धा बना देता है।
    • प्रथम प्रभाव – कई व्यक्ति प्रथम दृष्टि में ही किसी के प्रति विशिष्ट प्रकार की छाप अपने मस्तिष्क में अंकित कर लेते हैं। वे व्यक्ति गुणों का अध्ययन किये बिना ही मन में दूसरों के प्रति उत्पन्न असर, राय या विचार के आधार पर उनका अवबोध करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्रबन्धक किसी कुरूप कर्मचारी को पहली बार, देखकर ही यह धारणा बना ले कि वह अकुशल एवं निकृष्ट निष्पादनकर्ता होगा जबकि वास्तव में वह कर्मचारी सच्चा, निष्कपट एवं गंभीर हो तो यह प्रथम प्रभाव के फलस्वरूप है। अतः प्रथम प्रभाव के आधार पर किसी के बारे में अवबोध करना उचित नहीं है।
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