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वैधानिक तौर पर लागत अंकेक्षण कम्पनी अधिनियम की धारा 233 (बी) के अन्तर्गत कुछ वर्षों से ही किया जाने लगा हैं परन्तु निजी रूप से यह जाँच, व्यवसायी निरन्तर करता रहता है। निम्नलिखित कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनसे लागत अंकेक्षण की प्रकृति का बोध होता है- (1) यह एक औचित्य अंकेक्षण है – लागत अंकेक्षक को उन मामलों की जाँच कर रिपोर्ट देनी होती हैं जो सिद्धान्त की दृष्टि से गलत होते हैं। उन मामलों को दर्शाना होता है जहाँ कम्पनी के कोर्षों का अकार्यकुशलता से प्रयोग किया गया है तथा उन अनुबंधों व कार्यकलापों भी प्रकाश में लाना होता…

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किसी भी संस्था में लागत अंकेक्षण अनेक उद्देश्यों के लिये कराया जा सकता है तथा संस्था के उद्देश्य उस व्यक्ति या संस्था पर निर्भर करते हैं जिसके द्वारा लागत अंकेक्षण कराया जा रहा है। लागत अंकेक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है- (a) वस्तुओं की लागत को विभिन्न रीतिर्यो यथा बजट नियन्त्रण तथा प्रमाप लागत लेखांकन के माध्यम से नियंत्रित किया जा रहा है। (b) सामग्री एवं श्रम लागत में हो रहे अपव्ययों को नियन्त्रित किया जा रहा हैं। (c) लागत लेखा योजना किस्म सुधार, किस्म नियन्त्रण तथा मान विश्लेषण में सहायक हो रही है। लागत अंकेक्षण के उद्देश्य

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(1) निपुणता अंकेक्षण (Efficiency of Cost Audit): निपुणता अंकेक्षण कार्य निष्पादन की ऐसी जाँच है जो यह विश्वास दिलाये कि संस्था के साधनों को अधिकतम लाभप्रद स्त्रोतों में लगाया गया है। इसे लाभदायकता अंकेक्षण कह सकते है। निपुणता अंकेक्षण में अंकेक्षक को यह जाँच करनी होती है किः निपुणता अंकेक्षण में जाँच कार्य पूँजी के विनियोजन के स्तर पर किया जाता है। इसमें विनियोगों का विश्लेषण किया जाता है तथा पूँजी पर प्रत्याय की गणना की जाती है। इसमे वापिसी भुगतान अवधि (Pay-back period) भी देखी जाती है। लागत अंकेक्षण का यह रूप प्रशासन की कार्यकुशलता का मापक है। भारतीय…

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लागत अंकेक्षण दो शब्दों लागत + अंकेक्षण से मिलकर बना है। लागत से आशय समस्त व्ययों के कुल योग से हैं तथा अंकेक्षण से आशय लेखा पुस्तकों एवं सम्बन्धित प्रपत्रों की जाँच से है। इस जाँच का उद्देश्य व्यवसाय की सही स्थिति की जानकारी रखना होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लागत अंकेक्षण लागत लेखों की जाँच है’ जिसका उद्देश्य लागत लेखों की सत्यता की जाँच कर यह देखना है कि लागत का निर्धारण सही है या नहीं। इंस्हीयूट ऑफ कॉस्ट एण्ड वर्क्स एकाउन्टेन्ट्स ऑफ इंडिया ने लागत अंकेक्षण को “व्ययों के सूक्ष्म विवरणों की निपुणता के अंकेक्षण के…

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भारतीय संविधान की निर्माण प्रक्रिया एवं स्त्रोत भारतीय संविधान के प्रमुख स्रोत भारतीय संविधान उधार का थैला किसी भी राष्ट्र की शासन व्यवस्था का संचालन उस राष्ट्र के संविधानानुसार किया जाता है। भारत की शासन व्यवस्था का संचालन भी भारतीय संविधान के अनुसार किया जाता है। भारत के संविधान का निर्माण एक प्रतिनिधि सभा द्वारा सुनियोजित तरीके से किया गया था, जिसे संविधान निर्मात्री सभा कहा गया। भारत में इस संविधान सभा की प्रेरणा का स्त्रोत 17वीं और 18वीं शताब्दी की लोकतांत्रिक क्रान्तियाँ हैं। इंग्लैण्ड के समतावादियों तथा हेनरीमेन ने संविधान सभा के विचार का प्रसार किया, किन्तु सर्वप्रथम अमेरिका…

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संगठनात्मक व्यवहार के सिद्धान्त:- संगठनात्मक व्यवहार विषय कुछ मूलभूत विचारों व अवधारणाओं पर संगठनात्मक व्यवहार आधारित है जो कि व्यक्ति तथा संगठनों की प्रकृति से सम्बन्धित है। ये विचार संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से लागू होते हैं, यद्यपि प्रबन्ध के अन्य क्षेत्रों में भी इनका उपयोग होता है।

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AhirCabs लाया 100% पारदर्शी प्राइसिंग! – क्या आपने कभी गौर किया है कि जब आप Ola या Uber पर राइड बुक करते हैं, तो आपको और आपके दोस्त को अलग-अलग कीमतें दिखाई जाती हैं? हाल ही में कई यूजर्स ने यह शिकायत की कि iPhone और Android पर एक ही राइड के लिए अलग-अलग किराया दिखाया जा रहा है। यह खबर सोशल मीडिया पर वायरल होते ही लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। हालांकि Ola और Uber ने इस दावे को खारिज कर दिया, लेकिन यात्री अभी भी सवाल कर रहे हैं – “क्या हमसे ज्यादा पैसे वसूले जा रहे हैं?”…

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संगठनात्मक की प्रकृति :- (1) अध्ययन क्षेत्र :- संगठनात्मक व्यवहार अध्ययन का एक क्षेत्र है। यह अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है किन्तु यह अध्ययन का एक पृथक विषय है। अभी यह पूर्ण एवं मान्य विज्ञान नहीं है। ज्ञान का अभी व्यवस्थीकरण नहीं हुआ है तथा इसके सिद्धान्त एवं अवधारणाएं दूसरे विषयों से ग्रहण की जा रही है। (2) अध्ययन की विषय वस्तु संगठनात्मक व्यवहार में कुछ विशेष पहलुओं का अध्ययन किया जाता है जिनमें निम्नांकित पमुख है – (1) एकाकी व्यक्ति (2) व्यक्तियों का समूह (3) संरचना (4) तकनीक (5) वातावरण आदि। (3) आशावादी :- संगठनात्मक व्यवहार की मूल धारणा आशावाद…

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क्रियात्मक संगठन के लाभ और दोष :– क्रियात्मक संगठन:- जब उपक्रम के कार्यों का बहुत विस्तार हो जाता है तो समस्त कार्यों को एक प्रबन्धक द्वारा किया जाना असंभव होता है। प्रत्येक प्रबन्धक का प्रबन्ध क्षेत्र सीमित ही हो सकता है। अतः कार्य की अधिकता के कारण कार्य को विभिन्न व्यक्तियों एवं प्रबन्धकों में बाँटना आवश्यक हो जाता है। क्रियात्मक संगठन में प्रत्येक कार्य छोटे-छोटे भागों में बाँट दिया जाता है। कार्य के प्रत्येक छोटे भाग के लिए विशिष्ट ज्ञान रखने वाले व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है। यह विशिष्ट ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अपने संबंधित कार्य को करवाने के…

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