तुलनात्मक लागत का सिद्धान्त प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र का सबसे अधिक प्रसिद्ध सिद्धान्त माना जाता है। वास्तव में प्रथम विश्व युद्ध तक यह स्वीकार किया जाता था कि का तुलनात्मक लागत का विचार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की सबसे अच्छी व्याख्या है। इसके बाद भी इस क्षेत्र में जो भी उन्नति हुई वह परिपूरक स्वभाव की अधिक रही ।यह आधारमूलक प्रतिष्ठित सिद्धान्त वर्तमान युग के बहुत से अर्थशास्त्रियों द्वारा आधुनिक संदर्भ में केवल सुधार तथा विकसित किया गया है।
प्रो. सैम्यूलसन के अनुसार तुलनात्मक लागत के सिद्धान्त में सत्य की प्रमुख झलक है।इसका अर्थ यह नहीं कि यह सिद्धान्त दोषरहित हैं। इसकी आधारशिलाऐ बहुत कमजोर है। अतः आधुनिक युग में ओहलिन और ग्राहम आदि विद्वानों द्वारा इसकी कड़ी आलोचना की गयी है।
सिद्धान्त की निम्न आलोचनाएँ प्रमुख है
- श्रम लागतों पर विचार – रिकार्डो का सिद्धान्त श्रम लागतों पर आधारित है। वास्तव में उत्पादन लागत में श्रम के अतिरिक्त अन्य तत्व भूमि, पूँजी, साहस भी शामिल होने चाहिए क्योंकि एकमात्र श्रम ही उत्पादन का साधन नहीं होता। अतः आलोचकों के अनुसार श्रम लगात के स्थान पर मौद्रिक लागत के आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अध्ययन व्यावहारिक व उचित होगा। इसके अतिरिक्त मूल्य का श्रम सिद्धान्त स्वयं त्रुटिपूर्ण है क्योंकि यह अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है, जैसे:
- श्रम ही अकेला उत्पादक साधन है।
- श्रम की इकाइयों में एकरूपता होती है।
- श्रम पूर्णतया गतिशील होता है।
- स्वतंत्र प्रतियोगिता विद्यमान होती है, आदि ।
- स्थिर लागतों की कल्पना – इस सिद्धान्त की मान्यता है कि वस्तुओं का उत्पादन समता लागल नियम के अन्तर्गत होता है अर्थात उत्पादन लागतै समान रहती हैं। परन्तु व्यावहारिक रूप से अधिकतर वस्तुओं का उत्पादन उत्पति वृद्धि (घटी लागत) के नियम या उत्पति हास (बढती लागत) के नियम के अन्तर्गत होता है। बेसटेबल ने इस दोष को दूर करने हेतु सिद्धान्त में परिवर्तनीय लागतों के विचार का समावेश किया है।
- परिवहन व्यय की उपेक्षा – इस सिद्धान्त में वस्तुओं के परिवहन व्यय के सम्बन्ध में विचार नहीं किया गया। किसी वस्तु का निर्यात या आयात तभी सम्भव होगा जब कि दो देशों के मध्य वस्तु की उत्पादन लागत का अंतर वस्तु के परिवहन व्यय से अधिक हो। यदि दो देशों के मध्य वस्तुओं की उत्पादन लागतों का अंतर इतना कम है कि वस्तुओं को एक देश से दूसरे देश में भेजने के परिवहन व्यय को जोड़ने से लागों का अंतर समाप्त हो जाता है तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं होगा। इस कठिनाई से बचने के लिए कुछ अर्थशास्त्रियों ने यह स्वीकार कर लिया है कि जो देश वस्तु का निर्यात करता है वही इसके दुबलाई व्यय को वहन करता है और उत्पादन लागत में परिवहन व्यय भी सम्मिलित होता है ।
- साधनों की गतिशीलता का विचार भ्रामक – यह विचार कि देश के अंदर उत्पति के साधन गतिशील व देश के बाहर गतिहीन होते हैं, उचित नहीं है। ओहलिन ने देशों के मध्य उत्पादन के साधनों की अगतिशीलता की मान्यता को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आधार के रूप में अस्वीकार किया है। उनके दृष्टिकोण से साधनों की अगतिशीलता अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की कोई मुख्य विशेषता नहीं है। उत्पति के साधन एक ही देश के विभिन्न भागों में अगतिशील भी होते है। अतः तुलनात्मक लागत का सिद्धान्त समस्त व्यापार पर लागू होता है।
- दो देशों व दो वस्तुओं का विचार – इस सिद्धान्त में दो देशों व दो वस्तुओं के सम्बन्ध में ही विचार किया गया है। वास्तव में दो देशों व दो वस्तुओं से अधिक की स्थिति में भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किया जाता है।
- एकपक्षीय सिद्धान्त – यह सिद्धान्त एकपक्षीय है। यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के पूर्ति पक्ष पर ही विचार करता है, मांग पक्ष की उपेक्षा करता है। यह सिद्धान्त केवल यह बतलाता है कि एक देश कौनसी वस्तुओं का आयात व निर्यात करेगा किन्तु दो देशों के मध्य विनिमय की दर (व्यापार शर्त) कैसे निर्धारित होंगी, इस सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं डालता। इसके लिए मांग पक्ष का अध्ययन भी आवश्यक है।
- असमान आर्थिक आकार वाले देशों व असमान आर्थिक मूल्य वाली ‘वस्तुओं की स्थिति में अनुपयुक्त – यहां पर यह सिद्धान्त अपने आधार को जो देता है। ग्राहम (ग्राहम) ने इस सम्बन्ध में सिद्धान्त की आलोचना करते हुए अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये है: जब एक देश बड़ा हो और दूसरा छोटा हो तो छोटा देश एक वस्तु के उत्पादन में पूर्ण विशिष्टीकरण प्राप्त कर सकता है क्योंकि यह देश अपने उत्पादन का समस्त आधिक्य (surplus) बडे देश को बेच सकता है, परन्तु बडे देश के लिए किसी वस्तु में पूर्णरूप से विशिष्टीकरण प्राप्त करना सम्भव नहीं हो सकता। इसके दो कारण है:
- विदेश से प्राप्त होने वाली वस्तु की मात्रा कम होने के कारण बड़ा देश अपने यहां उस वस्तु की कुन मांग को पूरा करने में असमर्थ होगा ।
- बड़े देश की विशिष्टीकृत वस्तु के उत्पादन की मात्रा इतनी अधिक होगी कि छोटे देश में उसकी सम्पूर्ण विक्री सम्मव नहीं होगी। उदाहरण के लिए, भारत जो कि एक बड़ा देश है, गेहूं के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ होने के कारण गेहूँ में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है और बर्मा जो कि छोटा देश है, चावल में तुलनात्मक लाभ होने के कारण चावल के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है। दोनों देशों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होने पर बर्मा भारत की चावल के कुल मांग को पूरा करने में असमर्थ होगा ओर भारत के गेहूँ की पूरी मात्रा को बर्मा पूर्ण रूप से क्रय करने में असमर्थ होगा। अतः वर्मा के लिए तो पूर्ण विशिष्टीकरण करना सम्भव हो सकता है परन्तु भारत ऐसा नहीं कर सकता । जहाँ तक वस्तुओं के मूल्य का प्रश्न है, यदि एक वस्तु बहुत कम मूल्य वाली है जैसे माचिस और दूसरी वस्तु अधिक मूल्य वाली है जैसे ऊनी कपड़ा तो माचिस का उत्पादन करने वाला देश पूर्ण विशिष्टीकरण करने में असमर्थ होगा क्योंकि माचिस के सम्पूर्ण निर्यात का मूल्य उस देश की ऊनी कपडे की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता ।
- सैनिक महत्व के विचार की उपेक्षा – वर्तमान युग में प्रत्येक देश सैनिक कारणों से आत्मनिर्भर बनना चाहता है। किसी वस्तु में तुलनात्मक लाभ प्राप्त न होने पर भी वह उसे उत्पन्न करता है। अतः सिद्धान्त में सैनिक महत्व पर विचार नहीं किया गया है।
- पूर्ण प्रतियोगिता का अवास्तविक विचार – मूल्य का श्रम सिद्धान्त जो तुलनात्मक लागत के सिद्धान्त का आधार है, यह मान्यता लेकर चलता है कि श्रम तथा वस्तुओं के बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता होती है, परन्तु वास्तविक संसार में पूर्ण प्रतियोगिता मिथ्या है। श्रमिक संघ (Trade Union) तथा मालिक संघ (Employers Union) के कारण श्रम व पूँजी पर्याप्त रूप से अगतिशील हो जाते हैं जबकि पूर्ण प्रतियोगिता में उनकी गतिशीलता होनी चाहिए ।
- एक वस्तु की विभिन्न किस्मों पर विचार की उपेक्षा – यह सिद्धान्त उस स्थिति में लागू नहीं होता जब कोई देश वस्तु की एक किस्म का आयात करता है और उसी वस्तु की। दूसरी किस्म को निर्यात करता है। उदाहरण के लिए, आरत कपास की महँगी व श्रेष्ठ किस्म का आयात, करे और सस्ती व मोटे किस्म की कपास का निर्यात करे। यह आलोचना उचित नहीं है क्योंकि आर्थिक विश्लेषण के अन्तर्गत वस्तु की प्रत्येक किस्म को पृथक वस्तु माना जाता है।
- अवास्तविक स्थैतिक मान्यताएँ – यह सिद्धान्त इन मान्यताओं पर आधारित है कि उत्पादन के साधन जैसे भूमि, श्रम, पूँजी आदि की पूर्ति स्थिर रहती है। अतः यह सिद्धान्त आधुनिक प्रावैगिक संसार में लागू नहीं हो सकता। प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में साधनों की पूर्तिों में, उद्योग के डाँचों में, तकनीक आदि में परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप तुलानात्मक लागों का अनुमान लगाना अति कठिन है।