हेक्शर – ओहलिन सिद्धान्त तुलनात्मक लागतों के प्रतिष्ठित सिद्धान्त को शक्तिहीन नहीं करता वरन् इसका पूरक है क्योंकि यह सिद्धान्त भी यह स्वीकार करता है कि तुलनात्मक लाभ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण होता है। जहां प्रतिष्ठित सिद्धान्त इस प्रश्न का उत्तर देने में कि दो देशों में तुलनात्मक लागों में अंतर क्यों होता है? असफल रहा है, वहां आधुनिक सिद्धान्त ने इस सम्बन्ध में सफलता प्राप्त की है।
ओहलिन के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अन्तक्षेत्रीय व्यापार की एक विशेष स्थिति है। अन्तक्षेत्रीय व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मध्य कोई आधारभूत अंतर न होकर केवल परिमाणात्मक अंतर है। ओहलिन का कथन है कि विभिन्न क्षेत्रों में साधन मात्राएँ भिन्न होती हैं तथा विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के लिए वि की आवश्यकता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु का उत्पादन फलन भिन्नता रखता है। वस्तुओं में प्रयुक्त साधनों के संयोग का अनुपात भिन्न होता है। कुछ उत्पादन फलन ऐसे होते हैं जिनमें सापेक्षिक रूप से श्रम का अधिक अनुपात तथा कम पूँजी होती है जबकि कुछ ऐसे होते हैं जिनमें अधिक पूँजी और कम श्रम होता है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र उन्हीं वस्तुओं को उत्पादित करने के लिए उपयुक्त होता है जिनके उत्पादन के लिए आवश्यक साधन सापेक्षिक रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। एक क्षेत्र उन वस्तुओं को उत्पादित करने हेतु उपयुक्त नहीं होता जिनके उत्पादन के लिए ऐसे साधनों की अधिक मात्रा में आवश्यकता है जो कि वहां कम मात्रा में पाये जांचते हैं या बिल्कुल उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न वस्तुओं को उत्पादित करने की क्षमता, साधनों की उपलब्धता में अंतर होने के कारण भिन्न होती है। साधनों की मात्रा में अंतर अन्तक्षेत्रीय विशिष्टीकरण और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का स्पष्टीकरण है ।
हैक्शर ने स्पष्ट किया कि दो देशों के मध्य व्यापार तुलनात्मक लाभ में अंतर होने के कारण उत्पन्न होता है तथा तुलनात्मक लाभ में अंतर निम्न कारणों से होता है:
- दो देर्शा में उत्पादन के साधनों की सापेक्षिक दुर्लभता (और इसलिए सापेक्षिक मूल्य) में अंतर ।
- विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के लिए विभिन्न साधन अनुपातों का प्रयोग ।
प्रो. ओहलिन ने इसी विचारधारा को आगे बढ़ाया। उनके अनुसार भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का तात्कालिक कारण वस्तु मूल्यों के अंतरों का होना है। वस्तु मूल्यों में अंतर साधनों के मूल्यों में अंतर के कारण होते हैं और साधनों के मूल्यों में अंतर साधनों की उपलब्धता में अंतर के कारण होते हैं। साधन कीमतें अंतिम उत्पादन-लागतें होती है। अतः विभिन्न देशों में लागतें और इस प्रकार वस्तु कीमतें भिन्न होती है।
माना क और ख दो क्षेत्र हैं। इनमें क्षेत्र क में पूँजी की पूर्ति अधिक है परन्तु श्रम दुर्लभ है और ख क्षेत्र में इसके विपरीत स्थिति है। क्षेत्र क में यदि पूँजी (अधिक मात्रा में होने के कारण) सापेक्षिक रूप से सस्ती है और श्रम सापेक्षिक दुर्लभता के कारण महँगा है जबकि मशीनों के उत्पादन में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है तो वहां पर मशीनें सस्ती और गेहूं महँगा होगा। इसी प्रकार क्षेत्र ख में पूँजी की मात्रा दुर्लभहोने के कारण मशीनेंने महँगी होंगी और श्रम की अधिक मात्रा होने के कारण गेहूं सस्ता होगा ।
अतः क्षेत्र क को उन वस्तुओं के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ प्राप्त होगा जिनके लिए कि ऐसे साधर्ना की अधिक आवश्यकता होती है जो कि वहां अधिक मात्रा में उपलब्ध होने के कारण सस्ते हैं। इसी प्रकार क्षेत्र ख को भी उन्हीं वस्तुओं के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ प्राप्त होगा जिनके लिए कि उन साधनों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है जो कि वहां अधिकता में उपलब्ध है।
इससे यह स्पष्ट है कि क्षेत्र के उन वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण करेगा और निर्यात करेगा (जैसे उपरोक्त उदाहरण के अनुसार मशीनें) जिनको उत्पादित करने के लिए इस क्षेत्र में सापेक्षिक रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध साधनों की अधिक और सापेक्षिक रूप से दुर्लभ मात्रा में उपलब्ध साधनों की कम आवश्यकता होती है। इसके साथ-साथ यह क्षेत्र उन वस्तुओं का आयात करेगा (जेसे गेहूँ जिनके उत्पादन के लिए साधनों की विपरीत अनुपात में आवश्यकता होती है। यही नियम क्षेत्र ख की स्थिति में भी लागू होगा ।
अन्य शब्दों में किसी देश के द्वारा परोक्ष रूप से वे साधन जिनकी पूर्ति वहां अधिक है, उन वस्तुओं (जिनका उत्पादन इन साधनों द्वारा होता है) के रूप में निर्यात किये जाते हैं तथा वे साधन जिनकी पूर्ति कम है, आयात किये जाते हैं।ओहलिन के अनुसार व्यापार की प्रथम दशा यह है कि एक ही प्रकार की वस्तुएँ एक क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र की तुलना में अधिक सस्ती उत्पादित की जा सकती है । अन्तः अन्तक्षेत्रीय व्यापार का तात्कालिक कारण सदैव यह होता है कि वस्तुएँ घर पर उत्पादित करने की अपेक्षा बाहर से मौद्रिक मूल्य के रूप में अधिक सस्ती क्रय की जा सकती है। इस प्रकार ओहलिन यह स्पष्ट करते हैं कि वस्तु की मौलिक उत्पादन लागतों में अंतर से विशिष्टीकरण नहीं होता बल्कि वस्तु के अंतिम फ्लों में अंतर के कारण ही विशिष्टीकरण और व्यापार होते है। यह सत्य है. कि वस्तुओं की कीमतें उत्पादन लागतों के द्वारा ही निर्धारित नहीं होती बल्कि उन वस्तुओं की मांग द्वारा भी निर्धारित होती है। इस दृष्टिकोण से ओहलिन का सिद्धान्त एकपक्षीय न होकर दोनों ही मांग और पूर्ति को ध्यान में रखता है ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दो क्षेत्रों के मध्य सापेक्षिक कीमत अंतर दोनो क्षेत्रों में मांग और पूर्ति में अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं। दो क्षेत्रों में समस्त वस्तुओं की सापेक्षिक कीमत निम्नलिखित दशाओं में समान होगी ।
- जबकि (अ) दोनों ही क्षेत्रों के वस्तुओं की मांग को निर्धारित करने वाली दशाएँ एक-समान हों (जैसे उपभोक्ताओं की आवश्यकताएँ, पसन्दगी आय तथा अन्य सापेक्षक तत्व), (ब) जब दोनों क्षेत्रों में उपलब्ध उत्पादन के साधन लगभग एक ही अनुपात में हो जिससे कि दोनों देशों में पूर्ति सम्बन्धी दशाएँ समान हो ।
- साधनों की पूर्ति में होने वाला अंतर मांग सम्बन्धी दशाओं में ठीक उतने ही क्षतिपूरक अंतर द्वारा संतुलित या बराबर हो जाये, अर्थात् उत्पति के साधनों की पूर्ति में भिन्नताएँ उनकी मांग से सम्बन्धित दशाओं की भिन्नता के द्वारा बराबर हो जायें ।वास्तविक संसार में उपरोक्त दशाएँ विद्यमान नहीं होती। अतः साधनों की पूर्ति तथा मांग में भिन्नताएँ पायी जाती हैं। जिनसे दो क्षेत्रों में साधनों की कीमतों तथा वस्तु की कीमतों में भिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। साधनों की सापेक्षिक दुर्लभता (माँग की अपेक्षा साधनों की पूर्ति का कम होना) दो क्षेत्रों के मध्य व्यापार होने की आवश्यक मूल दशा है। उपरोक्त दशाओं में से दूसरी और तीसरी दशाएँ किसी भी समय नहीं पायी जा सकती । इस प्रकार ओहलिन द्वारा निकाले गये निष्कर्ष के अनुसार अन्तक्षेत्रीय व्यापार का तात्कालिक कारण दो क्षेत्रों में वस्तु कीमों में असमानता है तथा वस्तु कीमतों में असमानताएँ उन क्षेत्रों में साधनों की पूर्ति सम्बन्धी भिन्नताओं के फलस्वरूप उत्पन्न होती है ।
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