भारतीय उद्योगों में बहुराष्ट्रीय निगमों की हिस्सेदारी का एक मुख्य रूप विदेशी सहयोग है। इस उद्देश्य के लिए भारतीय उद्योगपतियों के साथ सहयोग के समझौते बनाए जाते हैं। जिनमें अक्सर टैक्नोलॉजी के प्रावधान की व्यवस्था होती है। कई बार विदेशी ब्रांड के नाम का इस्तेमाल करने की भी अनुमति दी जाती है। भारतीय कम्पनियों के साथ विदेशी कम्पनियों के सहयोग की मात्रा कितनी अधिक रही है इसका अन्दाज मात्र इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद बड़े या मध्यम औद्योगिक यूप में जितने नए उद्योग स्थापित किए गए उनमें से लगभग सभी में किसी न किसी प्रकार का विदेशी सहयोग मौजूद रहा है।
पिछले, कुछ वर्षों में तो सरकारी नीति और ज्यादा उदार बना दी गई है जिसके परिणामस्वरूप विदेशी सहयोग की बाढ़ सी आ गई है। उदाहरण के लिए, 1984 से 1988 के बीच 40 वर्षों में किए गए 12,760 विदेशी सहयोग के समझौतों में से 6,165 (अर्थात 48.3 प्रतिशत) 1981 से 1988 के बीच आठ वर्षों में किए गए। जुलाई-अगस्त 1991 में घोषित उदार विदेशी निवेश 1 नीति के परिणामस्वरूप, विदेशी सहयोग के समझौतों में तेज बुद्धि हुई है। उदाहरण के लिए, अगस्त 1991 से अगस्त 2002 के बीच भारत सरकार ने 7464 विदेशी प्रौद्योगिकी सहयोग प्रस्तावों तथा 15998 विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्रस्तावों को स्वीकृति दी। इन विदेशी सहयोग प्रस्तावों में 284812 करोड रुपये के विदेशी निवेश का प्रावधान था। परन्तु वास्तविक निवेश मात्र 129,838 करोड़ रुपये रहा ।
इन विदेशी सहयोगों के अध्ययन के कुछ रोचक तथ्य सामने आते है। बहुत सारे समझौते ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए किए गए जो अनावश्यक थर्थी या जिनका उत्पादन घरेलू टेक्नोलोजी से भी आसानी से हो सकता था। इस सन्दर्भ में बहुत-सी वस्तुओं का नाम लिया जा सकता है जैसे वैक्यूम फ्लास्क (थरमस), लिपिस्टिक, टूथपेस्ट, कास्मैटिक्स आइसक्रीम, बीयर, बिस्कुट, रेडिमेड कपड़े इत्यादि । न केवल इन वस्तुओं के लिए विदेशी सहयोग के समझौतों को मुजूरी दी गई अपितु एक ही वस्तु के उत्पादन के लिए अलग-अलग उद्योगपति को अलग-अलग विदेशी कम्पनियों से सहयोग करने की अनुमति भी दी गई। विदेशी सहयोग की अवधि समाप्त होने पर उनका दोबारा से नवीकरण भी किया गया। स्पष्ट है कि ये सारे विदेशी सहयोग के समझौते एक विशिष्ट उच्च आय वर्ग की मांग को पूरा करने के लिए तथा विदेशी ब्रांड के नाम का लाभ कमाने के लिए किए गए थे।
विदेशी सहयोग की इस ‘प्रवृति के अलावा, उसमें और बहुत से दोष थे जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्टः
- विदेशी सहयोग के बहुत से समझौतों में सरकार ने अलग-अलग उद्योगपतियों को अलग-अलग स्त्रोतों से एक ही अथवा एक जैसी ही टैक्नोलॉजी के आयात की अनुमति दी है। इससे देश पर भुगतान का भार तो बढ़ गया है परन्तु उपलब्ध तकनीकी ज्ञान में वृद्धि नहीं हुई है ।
- एक ही जैसी वस्तुओं की टैक्नालॉजी का अलग-अलग स्त्रोतों व देशों से आयात करने के कारण कई तरह के कलपूर्जा, डिजाइनों, कच्चा माल इत्यादि की आवश्यकता बढ़ गई है। इसलिए इनके उत्पादन के लिए या फिर इनका स्टॉक रखने के लिए व्यवस्था करनी पड़ी है जिससे साधनों का अपव्यय हुआ है। इसके अलावा, वस्तुओं के मानकीकरण में भी कठिनाई हुई है।
- समझौतों की शर्ते अक्सर विदेशियों के अनुकूल व हमारे हितों के प्रतिकूल रही हैं। इसके मुख्य कारण भारतीय उद्योगपतियों की कमजोर सौदा-शक्ति तथा विदेशी विनिमय के संकट के कारण सरकार की विदेशी सहयोग प्राप्त करने की तत्परता थी ।
- चूंकि मशीनरी के विनिर्देश (specification) तथा उपकरणों की आपूर्ति करने का काम विदेशी सहयोगियों पर छोड़ दिया गया था। इसलिए न केवल उन्होंने मनमानी कीमतें लगाई अपितु कई बार आवश्यकता से अधिक सामान का आयात किया । कई बार तो स्थानीय विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद माल का आयात किया गया। कभी-कभी कलपुर्जे न होने के कारण मशीनरी बेकार पड़ी रही और कभी-कभी उत्पादन प्रक्रिया आवश्यकता से अधिक जटिल व यंत्रीकृत थी। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं कि विदेशी सहयोगियों ने भारत को अपने देश में पुरानी पड़ चुकी टैक्नोलॉजी सौंप दी ।
- भुगतान की दरें भी इस प्रकार तय की गई थी कि ज्यादा से ज्यादा लाभ प्राप्त किया जा सके। आमतौर पर सरकार की यह नीति थी कि ज्यादा से ज्यादा वार्षिक बिक्री का 5 प्रतिशत तथा आयात किए गए प्लांट के मूल्य का 5 प्रतिशत तकनीकी फीस के रूप में दिया जाए या फिर तकनीकी फीस के रूप में निर्गमित पूजी का 10 प्रतिशत एकमुश्त राशि के रूप में दे दिया जाए। परन्तु ये ‘अधिकतम सीमाएं’ वास्तव में सामान्य दरें बन गई ।
- सबसे बड़ी कठिनाई विदेशी सहयोग के समझौतों में कई प्रतिबन्धात्मक व नियंत्रक शर्तों का होना है। कुछ नियंत्रक शर्ते निम्न थीः
- टैक्नोलॉजी किसी अन्य व्यक्ति या उद्योगपति को हस्तांतरित नहीं की जा सकती (कई बार तो समझौते समाप्त होने के बाद भी ऐसा किया गया)’
- उत्पादन विदेशी सहयोग द्वारा बताए गए विनिर्देशों के अनुसार करना होगा और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार उसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता;
- यदि विदेशों से कुछ खरीदारी करनी हो तो केवल विदेशी सहयोग से ही (या उसके माध्यम से ही) की जा सकती है;
- कई बार विदेशी तकनीकी विशेषज्ञों की निगाह के नीचे उत्पादन पर नियन्त्रण करने की व्यवस्था
- कीमत-नीति व विपणन इत्यादि में भी सहयोग फर्म का हस्तक्षेप रहता था । कई बार यह शर्त होती थी कि उत्पादन का एक हिस्सा उस सहयोगी कम्पनी की इस देश में कार्यरत किसी इकाई को पूर्व-निश्चित कमीशन पर उपलब्ध कराना होगा या किन्हीं विशिष्ट फर्मों को एकमात्र बिक्री एजेंट नियुक्त करना होगा;
- निर्यात करने के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध थे और यह प्रावधान था कि केवल विशिष्ट देशों को अथवा विशिष्ट शर्तों पर निर्यात किए जा सकते हैं। विदेशी सहयोग के कारण एकाधिकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिला है तथा आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण बढ़ा है।
विदेशी कम्पनियों ने बड़े औद्योगिक घरानों के साथ सांठ-गांठ की है और इससे दोनों पक्षों को लाभ हुआ है। विदेशी सहयोग के कारण बड़े औद्योगिक घरानों को पेटेंट साधनों, विदेशी मुद्रा इत्यादि प्राप्त करने में बड़ी मदद मिली है जिससे उनकी सम्पत्ति व आर्थिक शक्ति में और ज्यादा वृद्धि हुई है।
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