विकासशील देशों के समक्ष विकास जनित दबाव के कारण कच्चामाल, मशीनरी, तकनीक इत्यादि के आयात की आवश्यकता रहती है। साथ ही तुलनात्मक रूप में निर्यात वृद्धि नहीं होती है। फलस्वरूप भुगतान संतुलन सदैव प्रतिकूल रहता है। विकासशील देशों में भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता के कारणों का यदि विश्लेषण किया जाय तो स्पष्ट होता है कि इन देशों में निर्याों की तुलना में आयात अधिक होते हैं। कारण विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये इन देशों में विकास एवं विनियोग कार्यक्रम चलाए जाते है। विकास हेतु इन देशों में बड़ी मात्रा में पूंजी एवं अन्य संसाधनों की जरूरत होती है जो इन्हें विदेशों से ही आयात करने होते हैं, किन्तु ये देश तुलनात्मक रूप में; निर्यात वृद्धि करने में सफल नहीं होते है। फलस्वरूप भुगतान संतुलन प्रतिकूल ही रहता है।
विकासशील देशों के समक्ष दूसरी बड़ी समस्या तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या । इन देशों में जनसंख्या वृद्धि दर अधिक होती है जिनका भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या की अधिकता आयात के लिये प्रोत्साहित करती है। दूसरी ओर उत्पादन का अधिकांश भाग घरेलू मांग की आपूर्ति में ही खप जाता है। फलस्वरूप निर्याों की मात्रा में अधिक वृद्धि नहीं हो पाती है।
विकासशील देशों द्वारा जो उत्पादन किया जाता है उसकी मांग एवं मूल्यों में अस्थिरता की प्रवृति दिखाई देती है। विकसित देशों के द्वारा भी विकासशील देशों में विनियोग एवं आर्थिक सहयोग की कमी रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विकासशील देर्शा की वस्तुओं की ख्याति का अभाव रहता है। अतः वे चाह कर भी विदेशी मुद्रा अर्जन में अधिक सफल नहीं होते हैं।
विकासशील देशों में प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कारण विकासशील देशों में प्रतिकूल भुगतान संतुलन का मुख्य कारण विकास जनित दबाव होता है। इसके अतिरिक्त चक्रिय प्रभाव निर्यातों की मांग में परिवर्तन तथा जनसंख्या वृद्धि के कारण घरेलू आवश्यकता का बढ़ जाना इत्यादि कई कारण है जो विकासशील देशों में भुगतान संतुलन को प्रतिकूल रखते है। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार है:-
- आयार्ता की अधिकता एवं निर्यातों में स्थिरता दबाव के कारण आयातों की अधिकता रहती है। नवीन तकनीक इत्यादि का आयात किया जाना विकासशील देशों में विकासजनित विकास के लिए पूंजीगत वस्तुओं, आवश्यक होता है। अतः भुगतान संतुलन में प्रतिकूलता रहती है। जहां एक और पूंजी का अभाव रहता है वहीं दूसरी ओर इन देशों में सुविकसित निर्यात उद्योग भी नहीं होता है। फलस्वरूप निर्यात अधिक मात्रा में नहीं बढ़ पाते है।
- तीव्र जनसंख्या वृद्धि तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण बढ़ी हुई जनसंख्या की आवश्यकता पूर्ति हेतु घरेलू उत्पाद की अधिकांश मात्रा उसी में खप जाती है साथ ही आयातों में भी वृद्धि होती है तथा अर्द्ध विभाजित देशों को प्रतिकूल भुगतान संतुलन की समस्या का सामना करना पड़ता है।
- प्रदर्शन प्रभाव के फलस्वरूप आयात वृद्धि विकासशील देर्शा में विकास के जागरुकता उत्पन्न होने तथा यातायात एवं संदेश वाहन के साधनों के विकास के कारण यहां के नागरिकों का सम्पर्क विकसित देर्शा से होता है। तथा वे विकसित देशों में उपयोग में ली जाने वाली विलासिता की वस्तुओं की मांग करने लगते है। फलस्वरूप प्रदर्शन प्रभाव पूर्णतः कार्य करने लगता है तथा न चाहते हुए भी इन देशों में आयात बढ़ने लगते है। तुलनात्मक रूप में निर्यात नहीं बढ़ते है तथा भुगतान संतुलन प्रतिकूल रहने लगता है।
- विदेशी पूंजी का अभाव एवं ऋण यस्थता विकासशील देशों के समक्ष विदेशी पूंजी का अभाव रहता है तथा इन देशों को विदेशी ऋण तथा उस पर लगने वाले ब्याज में ही काफी विदेशी मुद्रा व्यय हो जाती है फलस्वरूप भुगतान संतुलन प्रतिकूल रहता है।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था में विकासशील देशों की पेठ का अभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था में जहां गलाकाट प्रतिस्पर्धा रहती है वहीं विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों की वस्तुओं की पेठ (ख्याति) नहीं होती है। फलस्वरूप ये देश अपने पूरे प्रयास करने के उपरान्त भी निर्यातों में वांछित वृद्धि नहीं कर पाते है।
- कमजोर सौदेबाजी की क्षमता विकासशील देशों पर आंतरिक विकासशील दबाव एवं राजनैतिक परिस्थितियों के कारण उनकी सौदेबाजी की क्षमता काफी कमजोर रहती है। उच्च किस्म की वस्तुएं निर्मित करने के उपरान्त भी विक्रय संबंधी सामूहिक सौदेबाजी में कमजोर रहते है। क्रय-विक्रय संबंधी इनकी शर्ते कमजोर रहती है तथा प्रतिस्पर्धा में ये देश पीछे रह जाते है।
- वैश्वीकरण जनित कारण 1991 के पश्चात् गेट समझौते के बाद उत्पन्न अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य का प्रभाव भी विकासशील देशों पर पड़ा है तथा ये देश वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अपने आप को बनाए रखने का प्रयास कर रहे है। इस नव सृजित व्यवस्था के कारण ये विकासशील देशों के भुगतान संतुलन प्रभावित हो रहे है। इस प्रकार भारत सहित विकासशील देशों के समस्त प्रतिकूल भुगतान संतुलन, की समस्या है। एक ओर इन देशों में वैश्वीकरण के कारण तेजी से उद्योग, वित्त, व्यापार एव के संदर्भ में परिवर्तन परिलक्षित हो रहे है तो वही दूसरी और विदेशी विनियोग की आपूर्ति के भी भुगतान संतुलन पर विकास जनित दबाव दिखाई दे रहा है। तथा नवीन परिवर्तनों एवं तकनीकी विकास के कारण भुगतान संतुलन विकासशील देशों में प्रतिकूल बना हुआ है।