हालोंकि भारत में विदेशी निजी क्षेत्र एवं बहुराष्ट्रीय निगर्मी से देश के प्राकृतिक साधर्ना के विदोहन एवं आर्थिक विकास में मदद ही नहीं मिली है, अपितु उच्च एवं आन्तरिक तकनीकी तथा प्रौद्योगिकी लाभ भी मिला है। परन्तु इन निगमों के आरतीय अर्थव्यवस्था पर हानिकारक प्रतिकूल प्रभाव भी पड़े हैं,
बहु राष्ट्रीय निगमों की आलोचनाऐ : बहु राष्ट्रीय निगम अक्सर स्थानीय उद्योगों को समाप्त कर देते हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ती है। ये कंपनियाँ अपने लाभ के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करती हैं। स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को नजरअंदाज करती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य केवल लाभ कमाना होता है, जिससे सामाजिक असमानता भी बढ़ती है।
- बहुराष्ट्रीय निगम अपने लाओं को अधिकतम करने के लिए कीमत निर्धारण की अनेक विधियों का प्रयोग करते हैं। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं-
- बाजार को विभिन्न फर्मों में बाँटना तथा बाजार में हेरा-फेरी करना,
- बाजार में वस्तु-विभेद करना
- वस्तुओं की कीमतें इस प्रकार निर्धारण करना कि निगम द्वारा नियन्त्रित सभी फर्मों के लाभ अधिकतम हो सके,
- उन राष्ट्रों में अपनी वस्तुओं की कीमतें ऊँची रखना, जहाँ करों की दरें नीची होती हैं। इस. प्रकार के करों से बच कर अपने लाभ बढ़ाते हैं।
- दिखावटी एवं नकली फर्मों की स्थापना करके अपने लाभों में वृद्धि करते हैं। इस प्रकार बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कीमत निर्धारण किये जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
- बहु राष्ट्रीय निगम एवं कम्पनियों अपने लाभों को बढ़ाने के लिए कई युक्तियों एवं तरीकों का उपयोग करती हैं, जैसे- अपने उत्पादों को घाटे पर बेचना, प्रतिस्पर्दो कम्पनियों को अपने में मिलाने की बाद्यता और विज्ञापन आदि । हालोंकि विज्ञापन करना तो अच्छा है, किन्तु भ्रमात्मक विज्ञापन एवं प्रचार से इनके उत्पादन की बिक्री तो हो जाती है, बाकी उत्पाद पड़े रह जाते हैं जो औद्योगिक विकास के हितों के विरुद्ध हैं।
- बहु राष्ट्रीय निगम का स्वरूप अल्पाधिकार के समान होता है। अतः ये अपनी आर्थिक शक्ति के कारण वास्तविक प्रतिस्पर्धा को समाप्त कर देते हैं। परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों को अनेक समस्याओं को सामना करना पड़ता है। जैसेः आकर्षक विज्ञापन, वस्तु विभेद, स्कन्ध बाजार में हेराफेरी और अपने लाभ को अधिकतम करने हेतु उत्पादकों, कृषकों एवं उपभोक्ताओं को अमित करते हैं। उपभोक्ताओं को ऊँची कीमतें चुकानी पड़ती है, कृषकों की आय कम हो जाती है तथा घरेलू उत्पादक कठोर प्रतिस्पर्द्धा के कारण असफल हो जाते हैं।
- बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा भौतिक लेन-देन का प्रभाव उद्देश्य स्वहित में वृद्धि करना होता है। अतः ये अनेक राष्ट्रों की मुद्राओं में लेन-देन करते हैं। निगम द्वारा दुर्लभ मुद्रा का प्रयोग सम्पत्ति प्राप्त करने में और सुलभ मुद्रा का प्रयोग ऋणों का भुगतान करने में किया जाता हैं। इससे मौद्रिक संकट की समस्या गम्भीर रूप धारण कर लेती है। अल्पविकसित राष्ट्रों को सर्वाधिक हानि होती है और इन राष्ट्रों की मुद्राएँ दुर्बल होना प्रारम्भ हो जाती हैं।
- बहु राष्ट्रीय निगमों द्वारा ऊँची कीमत पर अपनी विदेशी सहायक कम्पनियों से कच्चा माल खरीद कर दूसरी विदेशी सहायक कम्पनियों को निर्मित माल बहुत कम कीमत पर बेच देती है। परिणामस्वरूप उनका यहाँ तो उद्योग का लाभ घट जाता है, परन्तु विदेर्शों में बढ़ जाता हैं, इसी प्रकार वे कर चोरी भी करती है जिससे देश को हानि उठानी पड़ती हैं।
- बहुराष्ट्रीय निगम बड़े पैमाने पर लाभ कमाते हैं और इस लाभ को वे अपने मूल देश में ले जाते हैं। परिणामस्वरूप बहुमूल्य मुद्रा विदशी मुद्रालयों के रूप में बड़ी मात्रा में देश के बाहर चली जाती है। लाभ कमाने के लिए ये कम्पनियों इन अर्द्ध विकसित देशों में लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने में भी पीछे नहीं रहती हैं। दवा उद्योग में किये गये सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर दवाइयों का भी उत्पादन और विक्रय किया है जो उनके मूल देश में प्रतिबन्धित थी ।
- अपनी व्यापक वित्तीय एवं तकनीकी शक्ति के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण कई छोटे-छोटे अन्य विकसित देशों की स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता कम हुई है और उनकी स्वायत्तता खतरे में भी है। यही कारण है कि अल्पविकसित देशों में बहुराष्ट्रीय निगम लगाने के लिए कई प्रकार के कानून बनाये गये हैं एवं प्रशासनिक नियन्त्रणों की व्यवस्था की गई हैं।
- बहु राष्ट्रीय कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य अधिक लाभ प्राप्त करना होता है। इस कारण ये कम्पनियों पर्यावरण को प्रदूषित करने में भी नहीं चूकती है। इस कारण सामाजिक जीवन, प्रभावित हुआ है। हल्के स्तर के विज्ञापनों तथा प्रचार के माध्यम से मनुष्य के संस्कारों पर भी प्रभाव हुआ है।
- विदेशी निजी क्षेत्र एवं बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा जिन प्रौद्योगिकी एवं उच्च तकनीकों का प्रयोग किया जाता है, वे विकसित देशों की छोड़ी हुई होती हैं, किन्तु इनके द्वारा एक ओर ऊँचे दाम वसूल किये जाते हैं, तो दूसरी और देश उच्चतम प्रौद्योगिक से वंचित रह जाता है। ऐसी दशा में जिस आशा से इन निगमों की क्रिया-कलापों को प्रारम्भ किया गया था वे पीछे रह जाती है।
- विदेशी निजी क्षेत्र एवं बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा निवेशित पूँजी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार तो यह देखा है कि घरेलू उद्यमी योग्यताओं को पनपने का मौका ही नहीं दे पाते हैं। अल्पाधिकारिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है और उत्पादन संरचना में उच्च आय वर्गों की माँग को पूरा करने के लिए परिवर्तन किये जाते हैं। यही नहीं, भारत में विदेशी पूँजी कई अनावश्यक उद्योगों जैसेः शृंगार साधन, खिलौने एवं फाउण्टेन पैन इत्यादि में लगी हुई हैं। इस सम्बन्ध में पालवरन तथा अन्य मार्क्सवादी विचारकों का मत है कि “विदेशी पूँजी (खास तौर पर जब यह बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से प्राप्त होती है) नव साम्राज्य एवं शौषण के द्वार खोलती है। “
- निजी क्षेत्र की विदेशी कम्पनियों अथवा बहुराष्ट्रीय निगर्मा द्वारा उन्हीं क्षेत्रों में उद्द्योग लगाया जाता है, जहाँ आधारभूत सुविधाओं तथा आर्थिक लाभ मिलने की सम्भावना हो। परिणामस्वरूप पिछड़े क्षेत्रों में औद्योगिक विकास नहीं हो पाता है और क्षेत्रीय असमानता भी बढ़ जाती है इससे देश का समुचित विकास नहीं हो पाता है।
- ऐसा देखने में आया है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपने लाभों को बढ़ाने का प्रयास करते रहने से देश के हितों की रक्षा नहीं हो सकती हैं, जिससे अक्सर देश के भावी विकास में बाधा पहुँचती है। \
यही कारण है कि कोका-कोला, तथा आइ. बी. एम. जैसी अमेरिका कम्पनी को मारत में अपना कारोबार सीमित मात्रा में करना पड़ा ।