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Home»Collage Study»ओहलिन के सिद्धान्त की आलोचनाएँ
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ओहलिन के सिद्धान्त की आलोचनाएँ

adminBy adminJune 20, 2025No Comments4 Mins Read
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ओहलिन के सिद्धान्त की आलोचनाएँ
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  1. आलोचकों के अनुसार ओहलिन का सिद्धान्त अवास्तविक है क्योंकि यह प्रतिष्ठित सिद्धान्त की मान्यताओं की भांति अति सरलतम मान्यताओं पर आधारित है। यह बात उनके ‌द्वारा की गयी सिद्धान्त की व्याख्या की प्रारम्भिक स्थिति में सत्य है परन्तु उन्होंने सिद्धान्त को देशों के मध्य केवल उस न्यूनतम अंतर को ही मालूम करने के लिए सरल बनाया जो कि व्यापार को आरम्भ करने के लिए पर्याप्त है। यह न्यूनतम अंतर क्षेत्रों के मध्य उत्पादन के साधनों की सापेक्षिक मात्रा में होने वाला अंतर है। ओहलिन के सिद्धान्त में इसे एक बार स्वीकार करने के पश्चात् सिद्धान्त के प्रत्यक्ष दोष इसके गुणों में परिवर्तित हो जाते है क्योंकि सिद्धान्त समस्त मान्यताओं को हटाकर भी लागू होता है।
  2. यद्यपि ओहलिन का सिद्धान्त वास्तविकता के समीप है परन्तु यह एक विस्तृत सामान्य प्रणाली को विकसित करने में असफल रहा है। यह तो एक आशिक साम्य-विश्लेषण ही है।
  3. ओहलिन के अनुसार साधन कीमतों के निर्धारण में मॉग की अपेक्षा पूर्ति अधिक महत्वपूर्ण है। परन्तु यदि साधन कीमतों के निर्धारण में माँग शक्ति अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है तो पूँजी प्रधान देश, श्रम-प्रधान वस्तु का निर्यात करने लगेगा क्योंकि पूँजी की कीमत उसकी अधिक माँग के कारण श्रम की तुलना में अधिक ऊँची हो जायेगी। इस प्रकार दो देशों में मॉग दशाओं में सापेक्षिक भिन्नताएँ भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधार कहा जा सकता है।
  4. कुछ आलोचक यह अनुभव करते है कि यदि वस्तुओं के लिए उपभोक्ता की पसन्दगी (अधिमान) और माँग में अंतरों को स्वीकार किया जाता है तो वस्तु कीमत अनुपात लागत-अनुपाों को व्यक्त करने में असमर्थ रहेंगे। ऐसी स्थिति में व्यापार का स्वरूप ओहलिन के सिद्धान्त के अनुरूप नहीं होगा ।
  5. आलोचकों के अनुसार सापेक्षिक साधन सम्पतियों में अंतर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अन्तर्गत वस्तु कीमत अंतरों के अनेक कारणों में से केवल एक कारण है। वस्तु कीमतों में उस समय भी भिन्नताएँ हो सकती है जबकि दो देशों में साधन गुणों में भिन्नता, उत्पादन तकनीक में भिन्नता पैमाने का बढ़ता हुआ प्रतिफल या वस्तुओं के लिए उपभोक्ता की माँग में भिन्नताएँ पायी जाये। ओहलिन ने इसे स्वीकार किया है और निष्कर्ष निकाला है कि यद्रद्यपि वस्तु कीमतों में अन्तर्राष्ट्रीय भिन्नताओं के इस प्रकार के अनेक कारण है परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आधार की व्याख्या में साधन-सम्पतियों में असमानता प्रमुख कारण प्रतीत होता है।
  6. विद्वान विजनहोल्ड्स ओहलिन के आधुनिक सिद्धान्त की इस आधार पर आलोचना और श्रमिकों की मजदूरी की दरें अंतिम रूप से अंतिम वस्तुओं की कीमों पर निर्भर होती है। उनके अनुसार दोनों ही सिद्धान्त अर्थात् तुलनात्मक लागत सिद्धान्त तथा साधन अनुपात सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण हैं क्योंकि वे दोनो उत्पादन की लागतों में अंतरों से ही प्रारम्भ होते हैं। तुलनात्मक लागत सिद्धान्त उत्पादन लागतों के अंतरों को श्रम लागतों के रूप में मापन करता है और साधन अनुपात सिद्धान्त उन्हें मुद्रा के रूप में मापन करता है। परन्तु वास्तविक तार्किक विधि वस्तुओं की कीमतों से प्रारम्भ होती है और बाजार में वस्तुओं की कीमतें उपभोक्ताओं के लिए उनकी उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है। इस प्रकार वस्तुओं की कीमतें ही मूलरूप से उन स्थानों को निर्धारित करती है जहां पर कि श्रम, पूँजी आदि की प्रत्येक इकाई को काम पर लगाना है। एक साधन की प्रत्येक इकाई उस स्थान पर कार्य करेगी जहां पर कि उसे अधिकतम पुरस्कार प्राप्त होगा। यह पुरस्कार इस इकाई द्वारा उत्पादित
    • वस्तुओं की मात्रा अर्थात्साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (P.P.M), तथा
    • उपभोक्ता द्वारा चुकायी गयी बाजार में वस्तुओं की कीमत पर निर्भर होता है।
  7. आलाचकों के अनुसार साधनों की कीमतें समान होने पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हीसमाप्त हो जायेगा क्योंकि ओहलिन के अनुसार व्यापार साधनों की कीमतों में अंतरों के कारण ही होता है। इस आलोचना के उत्तर में यह कहा जा सकता है। कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अंत होते ही पुरानी स्थिति पुनः उत्पन्न हो जायेगी जिस देश में पहले श्रम प्रचुर मात्रा में था व सस्ता था, वह स्थिति फिर से आ जायेगी और जिस देश में पूँजी प्रचुर मात्रा में होने के कारण सस्ती थी वहां पूँजी की प्रचुरता पुनः उत्पन्न हो जायेगी और पूँजी सस्ती हो जायेगी ।

अंत में इन सबके होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि ओहलिन का साधन-अनुपात सिद्धान्त अन्य समस्त सम्भव व्याख्याओं में (कि व्यापार क्यों होता है) एक प्रामाणिक व्याख्या हैं

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