अवबोध की क्रिया ‘व्यक्ति’ और ‘वास्तविकता’ के बीच निरन्तर चलती रहती है। अवबोध की क्रियाविधि के तीन प्रमुख घटक है चयन, संगठन तथा विवेचन। इन्हीं से व्यक्ति का व्यवहार प्रकट होता है।
(1) चयन :- वातावरण में कार्यशील अनेक उद्दीपक एवं उत्तेजनाएँ निरन्तर प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित कर रही होती हैं। किन्तु वह इनमें से कुछ ही उद्दीपकों पर ध्यान देने के लिए उनका चयन करता है। व्यक्ति समस्त सूचनाओं को ग्रहण न करके केवल चयनित सूचनाओं को ही प्राप्त करता है। एक व्यक्ति एक निश्चित समय पर केवल कुछ उद्दीपकों का ही क्यों और कैसे चयन करता है, इस सम्बन्ध में उसके बोधात्मक चयन से जुड़े कुछ सिद्धान्त महत्वपूर्ण है जो व्यक्ति के बोधात्मक चयन को प्रभावित करते है। ये बहुत से बाह्य एवं आन्तरिक घटक है,
(अ) बाह्य ध्यानाकर्षण घटक – ये घटक बाह्य वातावरण से जुड़े होते हैं जो व्यक्ति की चयनात्मकता को प्रभावित करते हैं –
- (1) तीव्रत्ता – बाह्य उद्दीपक जितना अधिक तीव्र या प्रबल होता है उसका अवबोध उतना ही प्रगाढ़ होता है। विज्ञापनकर्ता उपभोक्ता का ध्यान आकर्षित करने में इस सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं
- (ii) आकार – इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का आकार जितना बडा होता है, इसका अवबोध होने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।
- (iii) विषमता – किसी चीज का प्रभाव या आकर्षण उसकी पृष्ठभूमि या वैषम्य स्थिति से उत्पन्न होता है।
- (iv) पुनरावृत्ति – इस सिद्धान्त के अनुसार बार-बार दोहराई गई बात या उद्दीपक पर ज्यादा ध्यान आकर्षित होता है।
- (v) गति – यह सिद्धान्त बतलाता है कि दृष्टि जगत में रूकी हुई चीजों की अपेक्षा गतिशील चीजें अधिक ध्यान आकर्षित करती है।
- (vi) अनूठापन एवं सुपरिचितता – कोई भी नवीन, अनूठी या सुपरिचित बाह्यस्थिति भी व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करती है। परिचित वातावरण में नई चीजे अथवा नए वातावरण में सुपरिचित चीजे अवबोधक का शीघ्र ही ध्यान आकर्षित कर लेती हैं। नवीन कार्य दशाएं, प्रशिक्षण योजना, कार्य आवर्तन आदि उनके अनूठेपन एवं नवीनता के कारण ध्यान आकर्षित करते हैं।
(ब) आन्तरिक ध्यानाकर्षण घटक – बोधात्मक चयन आन्तरिक घटकों से भीप्रभावित होता है। इसमें व्यक्ति की जटिल मनोवैज्ञानिक संरचना शामिल होती है। व्यक्ति वातावरण से उन उद्दीपकों या स्थिति का चयन करते हैं जो उनके व्यक्तित्व, ज्ञान एवं अभिप्रेरण के अनुकूल होती है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है –
- (i) सीखना एवं अवबोध – सीखने की अवधारणा अभिप्रेरण एवं व्यक्तित्व से जुड़ी है, किन्तु बोधात्मक समूह के विकास में इसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।
- (ii) बोधात्मक चयन का सम्बन्ध – व्यक्ति के ध्यान को आकर्षित करने वाले बाह्य एवं आन्तरिक घटकों से है बोधात्मक वातावरण से सूचना प्राप्त करने के बाद बोधात्मक प्रक्रिया में क्या होता है। एक व्यक्ति रंग, प्रकाश अथवा ध्वनि के संयोजन अथवा जोड़जाड़ का शायद ही अवबोध करता है। बल्कि इसके स्थान पर वह उद्दीपकों के संगठित प्रारूपों एवं पहचान योग्य सम्पूर्ण चीजों का अवबोध करता है। एक व्यक्ति बोधात्मक प्रक्रिया के द्वारा ही अपने मस्तिष्क में प्राप्त सूचनाओं को एक ‘अर्थपूर्ण समग्रता में संघटित करता है। बोधात्मक संयोजन के कुछ सिद्धान्त
(1) आकृति आधार – आकृति आधार का सिद्धान्त बोधात्मक संगठन का अत्यधिक मूल स्वरूप है। अवबोधित वस्तुओं को उनकी सामान्य पृष्ठभूमि से पृथक्करणीय रूप में देखा जा सकता है।
(2) बोधात्मक सामूहीकरण – बोधात्मक संयोजन का सामूहीकरण सिद्धान्त यह बतलाता है कि व्यक्तियों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे कई उद्दीपकों का एक साथ पहचान योग्य प्रारूप में समूहीकरण कर लेते है। यह बहुत मौलिक सिद्धान्त है तथा व्यक्तियों में वृहत् रूप से जन्मजात पाया जाता है।
(i) पूर्ण करना – ‘पूर्ण करने’ का सिद्धान्त संरूपण मनोविज्ञान से जुड़ा है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति किसी सम्पूर्ण स्वरूप का अवबोध कर लेता है जबकि वास्तव में यह स्वरूप वहाँ विद्यमान नहीं होता है। व्यक्ति अपनी बोधात्मक प्रक्रिया के द्वारा उन खाली स्थानों को भरके एक सम्पूर्ण आकृति का अवबोध कर लेता है जो ऐन्द्रिक सूचनाओं द्वारा नहीं भरे जा सके हैं।
(ii) निरन्तरता – पूर्ति करने का सिद्धान्त अनुपस्थित उद्दीपकों को उपलब्ध कराता है जबकि निरन्तरता के सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति निरन्तर रेखाओं या प्रारूपों का अवबोध करने की प्रवृत्ति रखता है।
(iii) समीपता – उन उद्दीपकों, जो आपस में निकट है, का समूह आपस में सम्बन्धित भागों से एक ‘सम्पूर्ण स्वरूप’ का अवबोध करने में सहायक हो सकता है।
(iv) समानता – इस सिद्धान्त के अनुसार उद्दीपकों में जितनी समानता होती है उतनी ही उनमें एक सामान्य समूह के रूप में अवबोध करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।
(3) बोधात्मक स्थायित्व : स्थायित्व बोधात्मक संयोजन का एक परिष्कृतस्वरूप है। स्थायित्व के अवबोध से व्यक्ति उद्दीपकों की गतिशीलता एवं परिवर्तन योग्यता को इस ढंग से देखता है कि ये उद्दीपक वास्तविक जगत के स्थायित्व का बोध कराने लगते है जिसमें वस्तुओं व व्यक्तियों के स्थायित्व एवं अपरिवर्तनशीलता का अवबोध किया जा सकता है।
(4) बोधात्मक सुरक्षा – यह सिद्धान्त संदर्भ के विचार से भी जुड़ा है। इसकेअन्तर्गत एक व्यक्ति ऐसे उद्दीपकों अथवा परिस्थितिगत घटनाओं के विरूद्ध एक सुरक्षात्मक घेरा तैयार कर लेता है अथवा उन्हें पहचानने से इन्कार कर देता है जो व्यक्तिगत रूप से अथवा सांस्कृतिक रूप से अस्वीकार्य या धमकाने वाली होती है।
(3) व्याख्या या अर्थ प्रतिपादन – अवबोध क्रियाविधि का तीसरा और अत्यन्तमहत्वपूर्ण भाग अर्थ प्रतिपादित करना है। अवबोधित घटनाओं एवं अवबोधित जगत की व्याख्या के बिना सब कुछ व्यर्थ है। व्याख्या करना एक व्यक्तिमूलक एवं निर्णयात्मक प्रक्रिया है। संगठनात्मक जीवन में अर्थ प्रतिपादित करने का कार्य कई घटकों से प्रभावित होता है। इनमें से कुछ प्रमुख निम्न प्रकार है –
(i) आरोपण – आरोपण के अन्तर्गत व्यक्ति स्वयं के एवं दूसरे के व्यवहार के कारण ही व्याख्या करता है। सामाजिक अवबोध में आरोपण से तात्पर्य दूसरे व्यक्तियों तथा स्वयं के व्यवहार की व्याख्या करने में कारणों की खोज करना है।
(ii) रूढ़िबद्ध करना – किसी व्यक्ति को रूढ़िबद्ध करने अथवा उसे एक ही सांचे में ढालने की प्रवृत्ति सामाजिक अवबोध की एक मुख्य समस्या है। रूढ़िबद्ध करना एक ऐसी बोधात्मक अभिवृत्ति है जिसमें अन्य व्यक्ति को किसी एक विशिष्ट श्रेणी में वर्गीकृत कर दिया जाता है। रूढ़िवद्ध व्यक्ति की आरोपित गुणों के सम्बन्ध में सामान्य सहमति रहती है तथा आरोपित गुणों एवं वास्तविक गुणों में विसंगति बनी रहती है।
(iii) प्रभामण्डल प्रभाव – सामाजिक अवबोध में प्रभामण्डल सम्बन्धी त्रुटिरूदिबद्ध करने जैसी ही है। अन्तर केवल इतना सा है कि रूढ़िबद्ध करने में व्यक्ति का अवबोध केवल ‘एक श्रेणी’ के अनुसार किया जाता है जबकि प्रभामण्डल प्रभाव में व्यक्ति का अवबोध केवल ‘एक गुण’ के आधार पर किया जाता है।
(iv) प्रथम प्रभाव – कई व्यक्ति प्रथम दृष्टि में हो किसी के प्रति विशिष्ट प्रकार की छाप अपने मस्तिष्क में अंकित कर लेते हैं। वे व्यक्ति गुणों का अध्ययन किये बिना ही मन में दूसरों के प्रति उत्पन्न प्रभाव, राय या विचार के आधार पर उनका अवबोध करने लगते हैं।