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Home»Accountancy»विक्रय एंव वितरण अंकेक्षण का व्यावहारिक पहलू
Accountancy

विक्रय एंव वितरण अंकेक्षण का व्यावहारिक पहलू

adminBy adminJune 9, 20252 Comments29 Mins Read
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विक्रय एंव वितरण अंकेक्षण का व्यावहारिक पहलू
विक्रय एंव वितरण अंकेक्षण का व्यावहारिक पहलू
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उपरोक्त विवेचन तो विपणन अंकेक्षण के सैद्धान्तिक पहलू से सम्बन्धित है, निम्नलिखित विवेचन अंकेक्षण के व्यवहारिक पहलू अर्थात विक्रय एवं वितरण अंकेक्षण से सम्बन्धित है:

  1. विक्रय संगठन की समीक्षा (Review of Sales Organization): किसी भीव्यवसाय की सफलता में कुशल विक्रय संगठन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। संगठन के सामान्य सिद्धान्त व तकनीके ही विक्रय संगठन पर भी लागू होती हैं। विक्रय संगठन की समीक्षा करते समय सर्वप्रथम तो प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा किः
    • उन क्रियाओं को भली-भांति परिभाषित कर दिया गया है जिन्हें विक्रय विभाग द्वारा किया जाना है;
    • समान प्रकार की क्रियाओं को एक समूह में रखकर भिन्न-भिन्न क्रियाओं के भिन्न-भिन्न समूह बना दिये गये हैं;
    • प्रत्येक व्यक्ति के उत्तरदायित्व का निर्धारण कर दिया गया है;
    • विभिन्न व्यक्तियों में सम्बन्धित क्रियाओं का उचित विभाजन कर दिया गया है।
    • उत्तरदायित्व के अनुसार अधिकार भी सौंप दिये गये हैं;
    • विभिन्न कर्मचारियों में तालमेल की सुन्दर व्यवस्था स्थापित कर दी है। यह तो हुई विक्रय संगठन की प्रारम्भिक समीक्षा अर्थात संगठन प्रक्रिया की समीक्षा। इस समीक्षा के पश्चात् प्रबन्ध अंकेक्षक को संगठनात्मक ढाँचे की समीक्षा करनी होगी। संगठनात्मक ढाँचे के अन्तर्गत प्रबन्ध अंकेक्षक को निम्नलिखित तथ्यों की समीक्षा करनी होती है:
      • व्यवसाय का आकार – प्रत्येक प्रकार का संगठन व्यवसाय के आकार पर निर्भर करता है जितना बड़ा व्यवसाय होगा उतना ही अधिक विस्तृत व जटिल उस व्यवसाय का संगठनात्मक ढाँचा होगा। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक यह देखेगा कि विक्रय संगठन व्यवसाय के आकार को देखते हुए उपयुक्त है तथा पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों की नियुक्ति की गयी है।
      • उत्पाद की प्रकृति – जिस प्रकार व्यवसाय का आकार संगठनात्मक ढाँचे को प्रभावित करता है ठीक उसी प्रकार संस्था द्वारा उत्पादित वस्तुओं की प्रकृति भी विक्रय संगठन के ढाँचे को प्रभावित करती है। अतः प्रबंध अंकेक्षक इस तथ्य की जाँच करेगा की विक्रय संगठन उत्पादित वस्तुओं की प्रकृति के अनुरुप है तथा इससे विक्रय पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड रहा है।
      • विक्रय योजना – आधुनिक युग में प्रत्येक कार्य योजनाबद्ध तरीके से होता है। अतः विक्रय कार्य के लिए भी पूर्व में योजना बनानी पडती है। प्रवन्ध अंकेक्षक देखेगा की विक्रय कार्य संगठन का ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए कि विक्रय योजना को कार्यान्वित किया जा सके एवं योजना के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय योजना तथ्यों तथा समंकों पर आधारित है व योजना बनाने से पूर्व सम्पूर्ण सूचनाएँ प्राप्त कर ली गई हैं।
      • लचीलापन – लचीलापन किसी भी संगठन की सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक तत्व है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय संगठन लचीला है व विक्रय संगठन का निर्माण करते समय बाजार के विस्तार की संभावनाओं को ध्यान में रखा गया है , या नहीं। साथ ही विक्रय संगठन ऐसा भी होना चाहिए जिसमें परिस्थितियों के अनुसार समायोजन किया जा सके।
      • परम्पराओं का अनुपालन सामान्यत – कर्मचारी परिवर्तन का विरोध करते हैं तथा वे जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। अतः वे परम्पराओं के पालन पर जोर देते हैं। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय संगठन का निर्माण करते समय सामान्य परम्पराओं को ध्यान में रखा गया है। साथ ही लकीर के फकीर वाली स्थिति भी नही होनी चाहिए।
      • उपलब्ध साधन – प्रबन्ध अंकेक्षक यह भी देखेगा कि विक्रय संगठन का निर्माण करते समय उपलब्ध साधनों तथा पूंजी, विक्रय कर्मचारी व विक्रय क्षमता को भी ध्यान में रखा गया है। अगर विक्रय संगठन का निर्माण करते समय इन सभी तत्वों की उपेक्षा कर दी जाती है तो विक्रय योजना के क्रियान्वयन में असफलता ही हाथ लगती है।
      • विक्रय अधिकारियों तथा कर्मचारियों की समीक्षा – विक्रय विभाग में अनेक अधिकारी तथा कर्मचारी कार्य करते हैं। इन विभिन्न व्यक्तियों के सम्बन्ध में समीक्षा करना भी प्रबन्ध, विक्रय संवर्धन प्रबन्धक, बाजार शोध प्रबन्ध यात्री अभिकर्ताओं, काउन्टर विक्रेताओं तथा अन्य कर्मचारियों के कार्य की समीक्षा कर यह देखेगा कि प्रत्येक कार्य के लिए कुशल एवं योग्य व्यक्ति की नियुक्ति की गई है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहा है। इन प्रबन्धकों में आपसी तालमेल है या नहीं, आदि।
  2. मूल्य निर्धारण की समीक्षा: मूल्य निर्धारण नीति का किसी भी संस्थान के विक्रय से बहुत ही निकट का सम्बन्ध है। वस्तु के मूल्य को ध्यान में रखते हुए ही क्रेता किसी वस्तु के क्रय की मात्रा का निर्धारण करता है। यहाँ तक कि वस्तु के गुण व श्रेष्ठता का मापदण्ड भी बहुत से लोग मूल्य को ही मानते हैं। अतः मूल्य निर्धारण बहुत सोच-समझकर किया जाना चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक को मूल्य निर्धारण नीति की समीक्षा कर यह पता लगाना चाहिए कि मूल्य नीति सामयिक, व्यावहारिक तथा व्यवसायी व समाज के हितों की रक्षा करने वाली है अथवा नहीं। मूल्य निर्धारण नीति की समीक्षा करते समय प्रबन्ध अंकेक्षक निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगा :-
    • लागत – मूल्य निर्धारण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका लागत की होती है। यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जितनी ही जिस वस्तु की लागत अधिक होगी, उतनी ही उस वस्तु की कीमत भी अधिक होगी। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि मूल्य का निर्धारण इस प्रकार किया जाता हे जिससे लागत वसूल होने के साथ-साथ कुछ लाभ भी अर्जित किया जा सके। कारण स्पष्ट है कि अगर मूल्य लागत से भी कम निर्धारित कर दिया गया तो संस्था को अपना व्यवसाय बन्द भी करना पड़ सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि मूल्य निर्धारण में न केवल प्रत्यक्ष वरन् अप्रत्यक्ष लागतों को भी सम्मिलित किया जाता है। ऐसी वस्तुएँ जो किसी विशेष मौसम में ही विक्रय होता है, उनका वर्ष भर संग्रह आदि करने की लागत, ब्याज की लागत तथा सामान्य क्षय आदि तत्वों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
    • प्रतियोगिता – मूल्य निर्धारण में प्रतियोगिता तत्व की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि वस्तु के विक्रय हेतु व्यापक प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए मूल्य निर्धारण किया जाता है। यदि बाजार में पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति है तो वस्तु का मूल्य नीचा व सामान्य मूल्य के आस-पास होना चाहिए। ऐसी स्थिति में लागत में सामान्य लाभ जोड़कर ही मूल्य निर्धारण करना चाहिए। इसके विपरीत यदि एकाधिकार की स्थिति है तो मूल्य कुछअधिक भी हो सकता है तथा लाभ की मात्रा भी अधिक हो सकती है। प्रबन्ध अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि एकाधिकार की स्थिति में व्यवसायी मनमानी कीमतें वसूल कर ग्राहकों के हितों को ठेस तो नहीं पहुंचा रहा है।
    • माँग की प्रकृति – ग्राहकों की व माँग की प्रकृति मूल्य निर्धारण में महत्वपूर्णभूमिका निभा सकते हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि व्यवसायी मूल्य से पूर्व ग्राहकों की रुचियों, प्रवृत्तियों व आवश्यकताओं आदि का ध्यान रखता है। इसके लिए व्यवसायी यह जानकारी प्राप्त करता है या नहीं कि उसके ग्राहक कौन हैं, ओ‌द्योगिक या उपभोक्ता ग्राहक, ग्राहकों का आय स्तर क्या है, स्त्री ग्राहक है या पुरुष ग्राहक, उनकी माँग की लोच क्या है, आदि। इसके अतिरिक्त ग्राहकके स्वभाव का पता होना चाहिए अर्थात ग्राहक घमण्डी है या नम्र स्वभाव का, दिखावे में विश्वास करता है या उपयोगिता में। घमण्डी तथा दिखावे में विश्वास करने वाले व्यक्ति सस्ती चीज के लिए भी अधिक पैसा देने को तंत्र रहते हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि मूल्य निर्धारण में उक्त सभी तत्त्वों का ध्यान रखा गया है।
    • सरकारी नीति – आधुनिक युग में व्यवसाय के हर अंग पर सरकारी नीतियों का भीप्रभाव पड़ता है। कभी-कभी सरकार भिन्न-भिन्न वस्तुओं के मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में अपनी नीति निर्धारित कर देती है यथा भारत में चीनी व इस्पात आदि के मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित किए जाते हैं व सरकार ही इनमें परिवर्तन करती है। प्रबन्ध अंकेक्षक कि इन वस्तुओं का मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित नीति के आधार पर ही तय किया गया है। यदि सरकार किसी वस्तु का मूल्य निर्धारित न भी करे परन्तु कोई विशेष प्राथमिकताएँ निर्धारित कर दे तो ऐसी वस्तुओं का मूल्य यथा सम्भव कम से कम रखने का प्रयास करना चाहिए।
  3. विक्रय नियोजन की समीक्षा (Review of Sales Planning) : विक्रय नियोजन विक्रय कार्य की भावी रणनीति तैयार करने से सम्बन्धित है। विक्रय नियोजन में वस्तुओं व सेवाओं को विक्रय हेतु बजट कार्यक्रम तथा नियोजन कार्यक्रम के रूप में भावी रूपरेखा तैयार की जाती है। एक अच्छे विक्रय कार्यक्रम में क्या, कैसे, क्यों, कब, कही व किसे आदि सभी प्रश्नों का उत्तर निहित होता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय कार्यक्रम भली-ऑति तैयार किया गया है। विक्रय नियोजन के लिए व्यक्तिगत विक्रय योजनाओं के सार रूप में एक मारटर प्लान तैयार किया जाना चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक कि विक्रय कार्यक्रम के अन्तर्गत उद्देश्य का निर्धारण किया गया है, विक्रय नौतियों का निर्माण गया है तथा विक्रम पद्धति तय की गई है। अतः विक्रय नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्ध अंकेक्षक तीन तथ्यों की समीक्षा करेगा:
    • विक्रय उद्देश्यों की समीक्षा – सम्पूर्ण विक्रय योजना की नीव विक्रय उद्देश्य ही है तथा उन्हीं पर विक्रय का सम्पूर्ण दाँचा बनाया जाता है। प्रत्येक व्यावसायिक संस्थान का प्रथम उद्देश्य लाभ कमाकर बाजार में अपने-आपको स्थापित रखना है, और बाजार में रहने हेतु आवश्यक है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक संस्थान के विक्रय उद्देश्यों की समीक्षा करेगा। विक्रय उद्देश्य का तात्पर्य यहाँ विक्रय लक्ष्यों से लिया जा सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि उद्‌योग के कुल व्यापार में कम्पनी का हिस्सा बहुत सोच-समझकर इस प्रकार निर्धारित किस गया है कि विक्रय लक्ष्यों को कम से कम लागत पर ग्राहकों को अधिकाधिक संतुष्ट करते हुए प्राप्त किया जा सके। विक्रय लक्ष्य प्रबन्धकों की मनमानी से निर्धारित नहीं किये जाने चाहिए। वरन् बाजार अनुसन्धान, उच्च अनुभव व विचारपूर्वक निर्धारित किये जाने चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय लक्ष्य जनसंख्या वृद्धि, सामग्री की उपलब्धता, सरकारी नीतियों व सामान्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किये गये हैं। आवश्यक समंक प्राप्त करके ही विक्रय लक्ष्यों का निर्धारण किया जाना चाहिए।
    • विक्रय नीतियों की समीक्षा – जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका, है विक्रय उद्देश्यों में संस्था के लक्ष्य निर्धारित होते हैं। परन्तु एक मात्र लक्ष्य ही संस्थान को गति प्रदान नहीं कर सकते। उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शक के रूप में विक्रय नीतियाँ चाहिए। विक्रय नीतियाँ उन मार्गों का निर्धारण करती हैं जिनके सहारे लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय नीतियों के विकास व सहायता ‌द्वारा उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है तथा विस्तार से चर्चा की गई है। उत्पाद की किस्म, विक्रय क्षेत्र, वितरण के माध्यम, मूल्य निर्धारण नीतियों तथा विक्रय संवर्धन से सम्बन्धित नीतियों की तो विस्तार से व्याख्या की जानी चाहिए तथा देखना चाहिए कि ये विक्रय नीतियाँ लक्ष्यों की प्राप्ति में कहीं तक सहायक रही हैं। विक्रय नीतियों का विस्तार से वर्णन आगे के पृष्ठों पर किया गया है।
    • विक्रय पद्धतियाँ – विक्रय नीतियों के अतिरिक्त विक्रय पद्धतियाँ निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक सुनिश्चित मार्ग प्रदर्शित करती हैं। विक्रय पद्धतियों विक्रय, विज्ञापन, पैकिंग, संवर्द्धन व शोध कार्य में संलग्न व्यक्तियों को एक निश्चित मार्ग दर्शाती हैं व इनका मार्गदर्शन करती हैं। प्रबंध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इन पद्धतियों का निर्धारण बहुत ही विचारपूर्वक किया गया है। किसी विशेष विक्रय कार्य की विभिन्न अवस्थाओं का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि विक्रय आसानी से सम्पादित की जा सके। प्रत्येक क्रिया के प्रत्येक स्तर का प्रमापीकरण कर दिया गया है या नहीं। अन्ततः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय पद्धतियों संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने, कार्यकुशलता में वृद्धि करने तथा प्रबन्धकीय क्रियाओं के अच्छे परिणाम जात करने में सहायक सिद्ध हुई हैं।
  4. विक्रय नीतियों की समीक्षा (Review of Sales Policies) : विक्रय नीतियों का निर्धारण उच्च प्रबन्ध द्वारा, घोषित लक्ष्यों व उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। नीतियों के माध्यम से ही उद्देश्यों को वास्तविकता के धरातल पर उतारा जा सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक को विक्रय नीतियों की समीक्षा हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए:
    • उत्पाद लाइन – उत्पाद लाइन से आशय उन सभी उत्पादों से है जिनका संस्था उत्पादन करती है या जिसमें व्यवसाय करती है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि उत्पाद की प्रत्येक मद, संस्था व ग्राहक दोनों के दृष्टिकोण से उचित है। ऐसी वस्तुओं का ही उत्पादन अथवा विक्रय किया जाना चाहिए जिनसे संस्था को अधिकतम लाभतथा ग्राहकों को अधिकतम संतुष्टि हो। ऐसी उत्पाद लाइन का निर्धारण किया गया है जो संस्था की योग्यता व तकनीकी क्षमता की परिसीमाओं के अन्दर हो। यदि किसी नये उत्पाद का विक्रय करने की नीति अपनाई जाय तो वह उपलब्ध सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए ही बनाई जाय। समय के साथ-साथ मॉग में भी परिवर्तन होते हैं व कुछ वस्तुएँ चलन से बाहर हो जाती हैं। अतः उत्पादन लाइन का निर्माण करते समय इस भावी सम्भावनाओं को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। उत्पाद लाइन के निर्धारण से सम्बन्धित विक्रय नीति इस प्रकार की होनी चाहिए जिसमें नये उत्पादों के चयन व पुराने उत्पादों को छोड़ने से सम्बन्धित क्रिया की निरन्तर समीक्षा होती रहे। सही उत्पाद लाइन के निर्धारण के अभाव में संस्था दिवालियापन की ओर अग्रसर हो सकती है। साथ ही उपभोक्ताओं की संतुष्टि भी व्यवसाय का एक प्रमुख सामाजिक दायित्व है। अतः सही उत्पाद लाइन का निर्धारण करना प्रबन्धकों का दायित्व है, तथा इसकी समीक्षा करना प्रबन्ध अंकेक्षक का कर्तव्य प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि उत्पाद व सेवाओं के विकास व नवप्रवर्तन की यथोचित व्यवस्था l नवप्रवर्तन मूल्य घटाने व उत्पाद की किस्म सुधारने अथवा उपयोगिता बढ़ाने से सम्बन्धित हो सकते हैं। इन सब तथ्यों को एक अच्छी विक्रय नीति में अवश्य ही स्थान मिलना चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि ऐसी नीतियों के निर्धारण में उत्पादन प्रबन्धक, वित्त प्रबन्धक तथा विक्रय प्रबन्धक, सभी मिलकर कार्य करते हैं। यद्यपि व्यवसायी का प्रमुख उद्देश्य लाभ अर्जित करना है परन्तु प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए कुछ अलाभकारी उत्पादों को भी बनाये रखना आवश्यक हो सकता है। इस तथ्य का ध्यान भी प्रकध अंकेक्षक को रखना चाहिए।
    • विक्रय क्षेत्रों का निर्धारण – विक्रय क्षेत्रों को समुचित रुप से निर्धारण करना भी नीति सम्बन्धी प्रश्न ही है तथा एक अच्छी विक्रय नीति का आवश्यक अंग भी। विक्रय क्षेत्र एक दूसरे से माँग, विक्रय, भौगोलिक विषमताओं, प्रतिस्पर्धा की अवस्था व आवश्यकता की भिन्नता के कारण उत्पन्न होती है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि उक्त तत्त्वों को ध्यान में रखकर ही विक्रय क्षेत्री का निर्धारण किया गया है एवं बाजारशोध ‌द्वारा इन विभिन्न विक्रय क्षेत्रों से सम्बन्धित ऑकडे भी एकत्रित कर लिये गये हैं। बाजार का समान तत्त्वों वाले क्षेत्रों व उप-क्षेत्रों में विभाजन कर दिया जाना चाहिए । प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि जब किसी वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों की नीतियाँ अलग-अलग हैं व बिक्री कर के सम्बन्ध में असमानता पाई जाती है तो ऐसी में बाजार का विभाजन भी राजनैतिक विभाजन अर्थात् राज्यों व जिलों के रूप में किया है। भौगोलिक स्थिति के आधार पर भी बाजार का विभाजन किया जा सकता है, यथा क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र आदि। बाजार का विभाजन घरेलू व औ‌द्योगिक उपभोक्ताओं के रूप में भी जा सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि यह विभाजन युक्तियुक्त है। माँग की परिस्थितियाँ सदैव परिवर्तित होती रहती हैं, अतः विक्रय क्षेत्रों में परिवर्तन करना भी अवश्यम्भावी है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि आवश्यकता के समय क्षेत्रों में पुनर्गठन कर दिया गया है। उसको यह देखना चाहिए कि हानिप्रद विक्रय की पहचान कर इनकी कार्यकुशलता में वृद्धि के प्रयास किये गये हैं। विक्रय बजट में प्रत्येक विक्रय क्षेत्र के लिए पृथक से विक्रय लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। साथ ही प्रबन्ध अंकेक्षक यह देखेगा कि प्रत्येक विक्रय क्षेत्र में प्रयोग किये जाने वाले विक्रय माध्यमों तथा उस क्षेत्र के लिए अनुमानित विक्रय व्ययों का पूर्व निर्धारण कर लिया गया है।
    • विक्रय श्रृंखला – विक्रय क्षेत्रों का निर्धारण हो जाने के पश्चात् श्रृंखला का चयन करना बहुत आवश्यक है। विक्रय खला वह पथ है जिस पर से होते वस्तु, उत्पादक द्वारा उपभोक्ता के हाथों में पहुंचाते हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय श्रृंखला का निर्माण करते समय उत्पाद की प्रकृति, बाजार क्षेत्र, उपलब्ध साधन व संस्थान क्षमता आदि को ध्यान में रखा गया है। जैसे बहुत अधिक कीमती व भारी वस्तुएँ तथा शीघ्र वस्तुओं के विक्रय हेतु स्वयं के विक्रयकर्ता नियुक्त करने चाहिए। उपभोग वस्तुओं व वस्तुओं के विक्रय के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की विक्रय व्यवस्था होनी चाहिए। वस्तुओं के विक्रय के लिए थोक विक्रेताओं व कमीशन एजेन्टों के माध्यम से माल को फुटकर दुकानों, बहु विभागीय भण्डारों तथा उपभोक्ता सहकारी समितियों तक पहुँचाया जा है। विक्रय श्रृंखला का निर्माण, मात्र प्राथमिक योजना कार्य ही नहीं है वरन प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि इस क्षेत्र में निरन्तर शोध कार्य हो रहा है तथा वर्तमान विक्रय श्रृंखलाओं की निष्पत्ति का निरन्तर मूल्यांकन हो रहा है। परिवर्तित परिस्थितिर्या के अनुसार विक्रय शृंखलाओं में भी समायोजन व परिवर्तन होते रहने चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि यदि विक्रय सरकारी संस्थाओं या संस्थागत क्रेताओं को किया जाता है तो विक्रय लहू लघु, मितव्ययी तथा न्यूनतम मूल्य पर वस्तुएँ प्रदान करने में सक्षम होनी चाहिए।
    • मूल्य निर्धारण नीतियाँ – मूल्य निर्धारण नीतियों का वर्णन इसी अध्याय में पहलेकिया जा चुका है।
  5. विक्रय नियंत्रण की समीक्षा (Review of Sales control) ; विक्रय नियंत्रण से आशय वास्तविक बिक्री की विक्रय प्रमापो से तुलना करना है। प्रबन्ध अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि विक्रय प्रमापों तथा विक्रय निष्पत्ति का मूल्यांकन कर उपर्युक्त प्रमापों से उनकी तुलना की गई है। विक्रय नियंत्रण में न केवल विक्रय प्रमापों की ही तुलनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए वरन् उन सभी विपणन क्रियाओं की समीक्षा की जानी चाहिए जिनके माध्यम से वस्तु उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुंचती है तथा विक्रय संवर्धन के प्रयासों में सहायता मिलती है। विक्रय निष्पत्ति पर तो सरलता से नियंत्रण रखा जा सकता है परन्तु विक्रय संवर्द्धन के प्रयासों पर नियंत्रण रखना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि इनके वास्तविक प्रभावों का मूल्यांकन संभव नहीं होता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि ऐसी स्थिति में प्रकध द्वारा पूर्ण विवेक व चतुराई का प्रयोग किया गया है। उसे यह भी देखना चाहिए कि विक्रय व्ययों में वृद्धि की स्थिति में प्रबन्धको द्वारा विक्रय प्रयासों को और अधिक सशक्त बनाने के प्रयास किये गये हैं अथवा लागत को कम करने के प्रयास किये गये हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक यह भी देखेगा कि संस्थान ने विक्रय के जो लक्ष्य निर्धारित किये हैं वे बहुत ऊँचे नहीं हैं तथा संस्थान द्वारा इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये यथेष्ट प्रयास किये गये हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय इकाइयों, मॉर्गा की संख्या, प्रदर्शनियों का आयोजन, नये क्रेताओं व व्यापारिक केन्द्रों की संख्या को आधारभूत नियंत्रण प्राविधि के रूप में प्रयोग किया गया है। बाजार की विशेषताओं व उत्पाद की प्रकृति के अनुसार एक या अधिक नियंत्रण तकनीके प्रयोग में लायी जा सकती है। प्रकध अंकेक्षक देखेगा कि प्रत्येक बाजार व विक्रय क्षेत्र के अनुसार ही विक्रय नियंत्रण तकनीक अपनायी गयी है। विक्रय नियंत्रण की एक प्रमुख तकनीक अनुपात विश्लेषण है जिसका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है: अनुपात विश्लेषण (Ratio Analysis) – सम्पूर्ण विक्रय निष्पत्ति को मापने का एक प्रभावपूर्ण तकनीक अनुपात विश्लेषण है। प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिये कि विक्रय नियंत्रण हेतु अनुपात विश्लेषण को एक प्रभावपूर्ण तकनीक के रूप में प्रयोग किया गया है। अनुपात विश्लेषण के प्रयोग सम्बन्धी कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं:
  6. बाजार शोध की समीक्षा (Review of Market Research) : प्रत्येक व्यवसायी कोअपने व्यवसाय से बाजार सम्बन्धित सभी सूचनाओं की जानकारी रखनी चाहिये। बाजार शोध इसी आवश्यकता की निष्पत्ति मात्र है। प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि बाजार शोध हेतु सर्वप्रथम तो वर्तमान उपलब्ध समंकों का व्यवस्थित संकलन किया गया हैं तथा तत्पश्चात् यह निश्चय किया गया है कि कौन से समंक उपलब्ध नहीं है व उन्हें कैसे उपलब्ध किया जा सकता हैं। उसे यह भी देखना चाहिए कि किसी भी विक्रय योजना को क्रियान्वित करने से पूर्व इसका बाजार पर क्या प्रभाव पड़ेगा तथा ग्राहकों पर इस योजना का क्या असर होगा? यह सब बाजार शोध द्वारा ही जाना जा सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि कोई भी कदम उठाने से पूर्व यह पता कर लिया गया है कि उक्त कदम सही है अथवा नहीं। वह यह भी देखेगा कि प्रत्येक ग्राहक का पृथक खाता रखा गया है व इसके द्वारा उसे किये गये विक्रय की मात्रा का पता लगाकर विक्रय में कमी के कारणों का अनुसन्धान किया जाता है। ग्राहकों के विवरण से वर्तमान विक्रय प्रयासों की कमजोरियों के सम्बन्ध में शोध किया जा सकता है।
  7. विक्रय संवर्द्धन प्रयासों की समीक्षा (Review of Sales Promotion Efforts): विक्रय संवर्धन में वे सभी प्रयास सम्मिलित किये जाते हैं जो किसी वस्तु की माँग में वृद्धि या माँग को स्थिर करने के लिए किये जाते हैं। कुछ लेखक मात्र विज्ञापन क्रियाओं को ही विक्रय संवर्द्धन में सम्मिलित करते हैं, परन्तु वास्तव में विक्रय संवर्द्धन में उन सभी प्रयासों को शामिल किया चाहिए जो विक्रय वृद्धि में सहायक होते हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक इन सभी क्रियाओं व प्रयासों की समीक्षा कर देखेगा कि ये प्रयास सन्तोषजनक हैं तथा उनसे वांछित परिणाम मिल रहे हैं। इनमें से कुछ क्रियायें, जिनकी प्रबन्ध अंकेक्षक को समीक्षा करनी चाहिये, वे निम्नलिखित हैं:
    • डिजाइनिंग : प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि वस्तु का डिजाइन भव्य, मनमोहक तथा लुभावना है। वस्तु का आकार व आकृति इस प्रकार की है कि संग्रह व परिवहन में कोई कठिनाई नहीं होगी। वस्तु के डिजाइन को आकर्षक बनाने के लिए निरन्तर प्रयास जाते रहने चाहिए। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि वस्तु की डिजाइन सुधारने के प्रयासों में लागत तत्व को नजर अंदाज नहीं किया जाता है, वरन् इस तरह के प्रयास किये जाते हैं कि लगाता भी कम हो व डिजाइन भी सुधरे। वस्तु की डिजाइन में सुधार के साथ-साथ वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
    • पैकिंग: ग्राहक पर सर्वप्रथम प्रभाव वस्तु की आकर्षक पैकिंग ही पड़ता है। पैकिंग के सम्बन्ध में प्रबन्ध अंकेक्षक द्वारा निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में चाहिए:
      • वस्तु का पैकिंग आकर्षक व ग्राहकों की अभिरुचि के अनुरूप हो,
      • पैकिंग इस प्रकार किया जाये कि टूट-फूट व छीजन आदि से रहे,
      • पैकिंग के कारण वस्तु के मूल्य में विशेष वृद्धि नहीं हो जाये,
      • पैकिंग खोलते समय किसी तरह की हानि न हो;
      • पैकिंग ऐसा हो कि वस्तु के उपयोग के पश्चात् भी उसका उपयोग जा सके, यथा बिस्किट के दिन,
      • पैकिंग पर उत्पादक का नाम, व्यापार चिह्न, मूल्य, भाव आदि का भ्रष्ट उल्लेख हो;
      • पैकिंग ऐसा होना चाहिए कि मार्ग में सामग्री की चोरी न हो सके।,
    • व्यापार चिन्ह: आधुनिक युग में व्यापार चिह्न के नाम से ही वस्तु की बिक्री होती है, अतः प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि वस्तु का व्यापार चिह्न संक्षिप्त, सुगम, आकर्षक व स्मरणीय हो। व्यापार चिह्न का सरकार से रजिस्ट्रेशन करवा लिया जाना चाहिये ताकि अन्य लोग उसी चिह्न का प्रयोग न कर सकें। प्रबन्ध अंकेक्षक द्वारा विशेष ध्यान देने की बात यह है कि व्यापार चिन्ह अपनाते समय ग्राहकों की भावनाओं को पूर्ण रुप से ध्यान में रखा गया है एवं ग्राहकों की भावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
    • उत्पाद विश्लेषण : प्रवन्ध अंकेक्षक देखेगा कि जिस वस्तु का उत्पादन व विक्रय किया जा रहा है उसका निरंतर विश्लेषण होता रहे। इस विश्लेषण में निम्नलिखित बार्ता का ध्यान रखा जाना चाहिए.
      • वस्तु ग्राहकों की अभिरुचि के अनुरूप है,
      • वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि हेतु क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
      • वस्तु की किस्म सुधारने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
      • वस्तु को ग्राहकों की रुचि के अनुरूप ढालने के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं?
      • स्थापित उत्पादों के प्रति ग्राहकों के दृष्टिकोण में क्या कोई परिवर्तन आया है?
      • उत्पाद की पुरानी किस्मों को समय के साथ-साथ प्रतिस्थापित किया जा रहा है अथवा नहीं?
      • वस्तु की उत्पादन लागत घटाने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
      • वस्तुओं के मूल्य का सही निर्धारण हो रहा है अथवा नहीं?
      • उत्पाद को अधिकाधिक उपयोगी बनाने हेतु क्या प्रयास किये जा रहे हैं, आदि?
    • बाजार शोध : बाजार शोध कार्य का विक्रय संवर्द्धन के क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है। प्रबन्ध अंकेक्षक बाजार शोध प्रक्रिया की जाँच करके यह पता लगाएगा कि बाजार शोध कार्य संतोषजनक ढंग से हो रहा है।
    • बाजार विश्लेषण : विक्रय संवर्द्धन में बाजार विश्लेषण की भी अपनी अहम् भूमिका है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि बाजार विश्लेषण में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाता है अथवा नहीं.
      • बाजार में प्रतिस्पर्धा की क्या स्थिति है?
      • क्या संस्था प्रतिस्पर्धियों से टक्कर लेने में सक्षम है?
      • उपभोक्ताओं की कौन सी आवश्यकताएँ अभी पूरी नहीं हुई?
      • कौन से क्षेत्र के उपभोक्ताओं तथा विक्रेताओं की पहुँच नहीं हैं?
      • बाजार का विस्तार करने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं?
      • वितरण का कौन सा माध्यम मितव्ययी तथा सुविधाजनक है?
      • प्रतिस्पर्धी विक्रेता विक्रय संवर्द्धन हेतु क्या प्रयास कर रहे हैं, आदि?
    • मूल्य निर्धारण : विक्रय संवर्द्धन से सम्बन्धित नीतियों में मूल्य निर्धारण का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तु के मूल्य में कमी करके अधिकाधिक क्रेताओं को वस्तु के क्रय हेतु आकर्षित किया जा सकता है। परन्तु कभी-कभी वस्तु के मूल्य में कमी करने का ग्राहकों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे सोचते हैं कि वस्तु की किस्म निम्न होने के कारण मूल्य में कमी की गयी है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि मूल्य निर्धारण बहुत ही सोच-विचारकर किया जाये। (मूल्य निर्धारण नीति की समीक्षा से सम्बन्धित तत्त्वों का विश्लेषण पहले कर दिया गया है)।
    • विक्रय क्षेत्रों का विश्लेषण : प्रबन्ध अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि विक्रय क्षेत्रों का विभाजन व उप-विभाजन बहुत ही सावधानी से किया गया है। ऐसे क्षेत्रों का सामयिक मूल्यांकन भी समय-समय पर होता रहता है। यदि आवश्यकता हो तो विक्रय क्षेत्रों में इस प्रकार से परिवर्तन का सुझाव देना चाहिए ताकि विक्रय में वृद्धि हो सके। यदि कोई विक्रय क्षेत्र अनुत्पादक है तो उस क्षेत्र को उत्पादक बनाने हेतु अथवा उसे बन्द करने हेतु सुझाव देने चाहिए।
    • विक्रय पश्चात् सेवा : ग्राहकों को संतुष्ट रख विक्रय वृद्धि करने के लिए विक्रय पश्चात् सेवा उपलब्ध करवाना बहुत आवश्यक है। कुछ वस्तुओं का स्वभाव ऐसा होता है, जो दीर्घकाल तक प्रयुक्त की जाती हैं, यथा घडी, रेडियो, कूलर, टी.वी. आदि, ऐसी वस्तुओं के लिए तो विक्रय पश्चात् सेवा उपलब्ध करवाना अति आवश्यक है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि ऐसी वस्तुओं के लिए विक्रय पश्चात् सेवा कुछ समय के लिये मुफ्त मरम्मत सेवा उपलब्ध करवायी गयी है।
    • विज्ञापन: विज्ञापन ही विक्रय वृद्धि की कुंजी है। विज्ञापन का सहारा लिये बिना कोई भी संस्था बाजार में अपना अस्तित्व स्थापित नहीं रख सकती। वर्तमान में के अनेकानेक साधन उपलब्ध हैं। कुछ साधन बहुत खर्चीले होते हैं तो कुछ सस्ते। कुछ साधनों से सीमित क्षेत्र में विज्ञापन होता है तो कुछ से विस्तृत क्षेत्र में। प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि संस्था ने उपलब्ध साधनों में से प्रतिस्पर्धा की स्थिति व उत्पाद की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ही विज्ञापन के साधनों का चयन किया है। साधन ऐसा भी नहीं होना चाहिए जिससे लागत की तुलना में लाभकम हो।
    • जोखिमों की रोकथाम : व्यवसायी को कदम-कदम पर जोखिमों की सामना करना पड़ता है। इन जोखिमों का प्रभावपूर्ण ढंग से सामना करने व जोखिमों को करने में ही व्यवसाय की सफलता निर्भर करती हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि इन जोखिमों का सामना करने की प्रभावपूर्ण व्यवस्था की गयी है व जोखिर्मा को नियन्त्रित करने के लिए जो नीतियों तथा कार्यक्रम अपनाये गये हैं वे प्रभावोत्पादक है या नहीं। जोखिम निम्नलिखित सम्भव हैं:
      • उत्पाद सम्बन्धी जोखिमें : उत्पाद के सम्बन्ध में निम्न जोखिमे हो सकती है:
        • कच्चे माल की कमी – कभी-कभी उत्पादन तथा विक्रय लक्ष्य निर्धारित कर लिये जाते हैं परन्तु लक्ष्य के अनुरूप उत्पादन करने के लिए कच्चा माल सुलभ नहीं पाता है अथवा ऊँचे मूल्य पर उपलब्ध होता है। ऐसे में विक्रय लक्ष्यों की पूर्ति कठिन हो है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि विक्रय पूर्वानुमान करते समय ही कच्चे माल के स्रोतों के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली गयी है अथवा नहीं।
        • शक्ति का अभाव – अनेक बार अप्रत्याशित कारणों से बिजली, कोयला आदि शक्ति के साधनों की पूर्ति रोक दी जाती है या कटौती कर दी जाती है। ऐसे में उत्पादन का अनुमानित स्तर बनाये रखना कठिन हो जाता है व निर्धारित लक्ष्र्थ्यो की प्राप्ति असम्भव होती है। प्रबन्ध अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि पावर में कटौती की दशा में निरन्तर रखने के लिए क्या वैकल्पिक उपाय किये गये हैं ताकि उत्पादन को यथावत जारी रखा जा सके।
        • श्रम शक्ति का अभाव – वर्तमान समय में श्रम-अशान्ति जोरों, पर है जिसके फलस्वरूप हडताल, तालाबन्दी, घेराव, आदि प्रतिदिन होते रहते हैं। इन सबसे उत्पादन कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि संस्था में श्रमिकों से मधुर सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास संतोषजनक है या नहीं तथा हड़ताल आदि की दशा में कोर्स वैकल्पिक व्यवस्था सम्भव है या नहीं।
        • सरकारी नीतियाँ – कई बार सरकारी नीतियों में परिवर्तन के कारण भी उत्पादन में बाधा उत्पन्न हो सकती है, जैसे सरकार किसी वस्तु के उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगा दे या उत्पाद से सम्बन्धित कच्चे माल की पूर्ति के नियमों में संशोधन कर दे।bप्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि ऐसी स्थिति का सामना करने में कम्पनी सक्षम हैअथवा नहीं।
        • दोषपूर्ण उत्पाद – कभी-कभी दुषित निर्माण क्रिया के फलस्वरूप उत्पाद दोषपूर्ण हो (जाता है अथवा उपभोक्ताओं में गलतफह‌मी हो जाने के कारण वस्तु की मांग कम हो जाती है। प्रवन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि ये दोष वास्तविक हैं या उपभोक्ता को गलतफहमी के कारण यदि उपभोक्ताओं को गलतफहमी है तो प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि ऐसी गलतफहमी दूर करने के लिए यथेष्ठ प्रयास किये गये हैं। अगर वास्तव में वस्तु में ही दोष है तो उस दोष को दूर करने के प्रयास किये जाने चाहिए।
      • आर्थिक जोखिमें: आर्थिक जोखिमें निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकती है:
        • ऋतुकालीन – उत्पादों की माँग पर ऋतुकालीन तत्वों का बहुत प्रभाव पड़ता हैं। कुछउत्पादों की माँग किसी ऋतु विशेष में बहुत अधिक हो जाती है तथा किसी अन्य ऋतु में बहुत कम। यथा शीत ऋतु में ऊनी कपड़ों की माँग बढ़ जाती हैं, तथा गर्मियों में ठण्डे पेय पदार्थों की माँग बढ़ जाती हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि यदि संस्थान में ऋतुकालीन वस्तुओं का उत्पादन हो रहा है तो उत्पादन मात्रा ऋतु के अनुसार ही होनी चाहिए।
        • समयकालीन – वस्तु की माँग पर समयकालीन घटकों का भी प्रभाव पड़ता है यथा जनसंख्या वृद्धि, नवीन आविष्कार, उपभोक्ताओं की रुचि व फैशन में परिवर्तन, सामाजिक व आर्थिक स्तर में परिवर्तन, आदि। इन परिवर्तनों के कारण जोखिमें बहुत बढ़ जाती है। प्रबन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि संस्था में इन घटकों के अध्ययन की पर्याप्त व्यवस्था है तथा इन जोखिमों से बचने हेतु अनुसंधान द्वारा उत्पादों के नये-नये उपयोग जात किये जाते हैं तथा उत्पादों में समय के अनुसार परिवर्तन किये जाते हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि संस्था में विक्रय प्रयासों को पुनर्गठित करने की क्षमता विद्यमान है तथा संस्था परिवर्तित परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम है।
        • व्यापार चक्र – व्यापार चक्र से आशय एक निश्चित समयान्तर से वस्तु की कीमतों में होने वाले उच्चावचन से हैं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि इन उच्चावचों के प्रति संस्था पूर्ण रूप से मूल्य वृद्धि से लाभ उठाने तथा मन्दी की स्थिति में सुरक्षा की पूर्ण क्षमता कम्पनी में विद्यमान है।
      • संग्रहण से सम्बन्धित जोखिमें : उत्पादित वस्तुओं को संग्रहित कर गोदाम में रखने में (अनेक बार जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है, यथा संग्रहित वस्तु के चोरी चले जाने, आग लग जाने, टूट जाने, वर्षा, ग्रीष्म, नमी व कीड़ों आदि से क्षति। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि इन सभी प्रकार की हानियों से सुरक्षित रहने की संस्था में पर्याप्त व्यवस्था विद्यमान है।
      • परिवहन जोखिमें: वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने-ले जाने में भी वे अनेक जोखिमें होती है जो वस्तुओं के संग्रहण करने पर उत्पन्न होती हैं, माल के चोरी चले जाने, आग लग जाने, युद्ध व दंगों आदि के कारण क्षय आदि। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि उत्पाद की प्रकृति के अनुसार प्रत्येक स्तर पर वस्तुओं को सुरक्षित रखने की पर्याप्त व्यवस्था विद्यमान है।
  8. निर्यात विक्रय की समीक्षा (Review of Export Sales): निर्यात व्यापार एक तकनीकी कार्य है तथा ऐसे व्यवसाय में बहुत अधिक चतुराई व बुद्धिमानी की आवश्यकता होती है। निर्यात व्यवसाय अपने देश में विक्रय से बहुत भिन्न है। अतः कोई व्यक्ति या संस्था निर्यात व्यवसाय का कार्य करती है तो प्रबन्ध अंकेक्षक को पृथक से उसकी समीक्षा करनी होगी। निर्यात व्यापार की समीक्षा में प्रबन्ध अंकेक्षक निम्नलिखित बातें देखेगा.
    • विदेशी बाजारों की स्थिति – प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि निर्यातकर्ता ने विदेशी बाजार की स्थिति का भली-भांति अध्ययन कर लिया है। विदेशी बाजार में कैसी वस्तु की माँग है, यह माँग कब तक बनी रहेगी, बाजार में प्रतिस्पर्धा की क्या स्थिति है आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है अथवा नहीं। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि नये बाजारों की खोज के संतोषप्रद प्रयास किये गये हैं तथा वर्तमान बाजार के विस्तार की क्या सम्भावनाएँ है, आदि।
    • विदेशी ग्राहकों के आर्थिक स्तर की जानकारी – प्रवन्ध अंकेक्षक को देखना चाहिए कि निर्यातक ने अपने विदेशी ग्राहकों की आर्थिक स्थिति ज्ञात करने हेतु क्या प्रयास किये है? यदि उन ग्राहकों की आर्थिक स्थिति गिर रही है तो वस्तु के मूल्य में कमी करने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि विक्रय का पुराना स्तर बनाये रखा जा सके। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि मूल्य में कमी वस्तु की किस्म में गिरावट को जन्म नहीं दे पाये। इसके विपरीत यदि ग्राहकों केआर्थिक स्तर व आय में वृद्धि हो रही हो तो ग्राहकों से अधिक मूल्य वसूल किया जा सकता है परंतु अधिक मूल्य लेने के लिए यह आवश्यक है कि वस्तु की किस्म. उपयोगिता, टिनाऊपन व सुन्दरता में वृद्धि की जाय। आर्थिक स्थिति ठीक होने पर यह निश्चित सा होता है कि ग्राहक कुछ अच्छी किस्म की व मूल्यवान वस्तुएँ क्रय करना चाहेंगे।
    • सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तनों की जानकारी – प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि संस्था विदेशों में होने वाले राजनैतिक व सामाजिक परिवर्तनों के प्रति जागरूक है तथा ध्यान में रखते हुए ही अपनी निर्यात योजना निश्चित करती है, यथा किसी देश में स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आंदोलन चल रहा है तो उस देश में अधिक निर्यात नहीं किया जा सकेगा। यदि किसी देश में राजनैतिक अस्थिरता व उथल-पुथल का वातावरण है या किसी देश की सरकार ने अन्य देशों से आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया है तो उस देश में होने वाले निर्यात की मात्रा में कमी ही जायेगी। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि निर्यातकर्ता इन सभी परिवर्तनों के प्रति जागरूक है।
    • दो देशों के मध्य राजनैतिक सम्बन्ध –आयात-निर्यात व्यापार दो देशों के मध्य राजनैतिक सम्बन्धों का भी प्रभाव पड़ता है। यदि दोनों देशों के मध्य राजनैतिक व आर्थिक सम्बन्ध संभावनापूर्ण हैं तथा भविष्य में भी सम्बन्धों के मैत्रीपूर्ण ही बने रहने की संभावना है तो निर्यात का लक्ष्य ऊँचा रखा जा सकता है। इसके विपरीत कटु सम्बन्धी की स्थिति में निर्यात में कमी आएगी तथा यह व्यापार बन्द भी हो सकता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि निर्यात लक्ष्य निर्धारित करते समय वर्तमान सम्बन्धी व उनकी भावी प्रवृत्ति का ध्यान रखा जाता है।
    • आयात-निर्यात नीति – अपने देश की निर्यात नीति व क्रेता के देश की आयातनीति का विश्लेषण किया जाना भी अत्यन्त आवश्यक है। यदि क्रेता देश की आयात नीति कठोर है तो निर्यातक देश की निर्यात नीति चाहे कितनी भी सरल क्यों न हो निर्यातक की मात्रा में कमी होगी। अतः प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि निर्यातक को दोनों देशों की नीतियों का भली-भाँति ज्ञान है तथा नीतियों में परिवर्तन के प्रति वह जागरूक है।
    • निर्यात संगठन की समीक्षा – निर्यात व्यापार में बहुत मात्रा में पूँजी तथा अन्य (साधनों की आवश्यकता होती है तथा इसकी क्रिया विधि लम्बी होती है, अतः निर्यात संगठन का ढाँचा भी जटिल होता है। प्रबन्ध अंकेक्षक देखेगा कि निर्यात के लिए पृथक से निर्यात अनुभाग की स्थापना की गई है तथा इस अनुभाग को सभी साधन व आवश्यक मात्रा में पूँजी उपलब्ध करवाए गए हैं। निर्यात अनुभाग में विदेशी बाजारों के अध्ययन व अनुसन्धान की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। उत्पाद विश्लेषण व बाजार विश्लेषण की सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। विदेशी विक्रेताओं से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखना भी अति आवश्यक है।
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